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द्वितीय समुदेशः
५७ मूलं प्रलयमुपव्रजति । यथाऽग्निपुटपाकापसारितकिट्टकालिकाद्यन्तरङ्गबहिरङ्गमलद्वयात्मानि हेम्नि मलमिति । निर्हासातिशयवती च दोषावरणे' इति ।
कथं पुनर्विवादाध्यासितस्य ज्ञानस्यावरणं सिद्धम्, प्रतिषेधस्य विधिपूर्वकत्वादिति । अत्रोच्यते-विवादापन्नं ज्ञानं सावरणम्, विशदतया स्वविषयानवबोधकत्वाद् रजोनीहाराद्यन्तरितार्थज्ञानवदिति । न चात्मनोऽमूर्त्तत्वादावारकावृत्त्ययोगः; अमूर्ताया अपि चेतनाशक्तेर्मदिरामदनकोद्रवादिभिरावरणोपपत्तः। न चेन्द्रि यस्यतैरावरणम्, इन्द्रियाणामचेतनानामप्यनावृतप्रख्यत्वात् स्मृत्यादिप्रतिबन्धायोगात् । नापि मनसस्तंरावरणम्; आत्मव्यतिरेकेणापरस्य मनसो निषेत्स्यमानत्वात् । ततो नामूर्तस्याऽऽवरणाभावः । अतो नासिद्धं तद्-ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्ध
वह कहीं पर निर्मूल प्रलय को प्राप्त होता है। जैसे अग्नि-पुट के पाक . से दूर कीट और कालिमा आदि अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग ये दोनों मल जिसके भीतर से ऐसा सुवर्ण मल रहित हो जाता है। इसी प्रकार अत्यन्त निर्मूल विनाश रूप अतिशय वाले दोष और आवरण हैं। ___ बौद्ध-विवादापन्न ज्ञान का आवरण कैसे सिद्ध है ? क्योंकि प्रतिषेध विधिपूर्वक ही होता है।
जैन-इस विषय में कहा जाता है-विवाद को प्राप्त ज्ञान आवरण सहित है; क्योंकि वह विशद रूप से अपने विषय को नहीं जानता है। जैसे कि रज और नीहार आदि से आच्छादित पदार्थ का ज्ञान विशद रूप से अपने विषय को नहीं जानता है।
भाट्ट-आत्मा अमूर्त होने से उसके आवरण करने वालों ( ज्ञानावरणादि ) का अयोग है।
जैन-अमूर्त भी चेतन शक्ति का मदिरा, मदनकोद्रव ( वह कोदों, जिसके खाने से मतवाले हो जाते हैं ) आदि से आवरण होना पाया जाता है।
भाट्ट-मदिरा, मदनकोद्रव आदि से इन्द्रियों का आवरण होता है।
जैन-अचेतन इन्द्रियों का आवरण अनावरण के तुल्य है। आत्मा के आवरण का अभाव मानने पर मदोन्मत्त के स्मरण हो, चूँकि स्मरण नहीं होता है अतः मदिरादि से आत्मा का ही आवरण सिद्ध है।
भाट्ट-मदिरा आदि से मन का आवरण होता है।
जैन-आत्मा के अतिरिक्त रूप मन का हम आगे निषेध करेंगे। अतः अमूर्त के आवरण नहीं होता है, ऐसा नहीं है। अतः तद् ग्रहण
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