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प्रमेयरत्नमालायां नियतमयं व्यवस्थापयति प्रत्यक्षमिति शेषः । हि यस्मादर्थे । यस्मादेवं ततो नोक्तदोष इत्यर्थः।
इदमत्र तात्पर्यम्-कल्पयित्वापि ताद्रूप्यं तदुत्पत्ति तदध्यवसायं च योग्यताऽव. श्याऽभ्युपगन्तव्या । ताप्यस्य समानार्थस्तदुत्पत्तेरिन्द्रियादिभिस्तद्वयस्यापि समानार्थसमनन्तरप्रत्ययस्तत्त्रितयस्यापि शुक्ले शङ्के पीताकारज्ञानेन व्यभिचाराद योग्यताश्रयणमेव श्रेय इति । एतेन यदुक्तं परेण
अर्थेन घटयत्येनां न हि मुक्त्वाऽर्थरूपताम् ।
तस्मात्प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ॥ ५ ॥ इति तन्निरस्तम्; समानार्थाकारनानाज्ञानेषु मेयरूपतायाः सद्भावात् । न च परेषां सारूप्यं नामास्ति वस्तुभूतमिति योग्यतयैवार्थप्रतिनियम इति स्थितम् ।
इदानीं कारणत्वात्परिच्छेद्योऽर्थ इति मतं निराकरोति
योग्यता का है, हेतुभूत उससे प्रत्यक्ष ज्ञान प्रतिनियत अर्थ की व्यवस्था करता है। 'हि' यस्मात् के अर्थ में है । चूँकि ऐसा है, अतः उक्त दोष नहीं है।
यहाँ तात्पर्य यह है-ताप्य, तदुत्पत्ति और तदध्यवसाय की कल्पना करके भी यहाँ योग्यता अवश्य माननी चाहिए। ताद्रप्य का समानार्थों के साथ, तदुत्पत्ति का इन्द्रियादिकों के साथ, इन दोनों का समानार्थ समनन्तर प्रत्यय के साथ ओर ताप्य, तदुत्पत्ति और तदध्यवसाय इन तीनों का शुक्ल शंख में पीताकर ज्ञान के साथ व्यभिचार आता है, अतः योग्यता का आश्रय लेना ही श्रेयस्कर है ।
ताप्य आदि के व्यभिचार प्रतिपादन करने से बौद्ध द्वारा जो यह कहा गया है
श्लोकार्थ-अर्थ रूपता को छोड़कर अन्य कोई निर्विकल्पक प्रत्यक्ष बद्धि अर्थ के साथ सम्बन्ध स्थापित नहीं करती है । अतः प्रमाण के विषयभूत पदार्थ को जानने के लिए मेयरूपता ( पदार्थ के आकार वाली तदाकारता) ही प्रमाण है ।। ५ ।।
यह कथन निरस्त हो जाता है। क्योंकि समान अर्थाकार वाले नाना ज्ञानों में मेयरूपता (तदाकारता ) पायी जाती है। बौद्धों के यहाँ सदृश परिणाम लक्षण वाला सामान्य पदार्थ जैसा सारूप्य नहीं है अतः योग्यता ही विषयके प्रतिनियम का कारण है।
इस समय पदार्थ को ज्ञान का कारण होनेसे परिच्छेद्य (ज्ञेय ) कहते हैं। इस मत का निराकरण करते हैं
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