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प्रमेयरत्नमालायां
चत्वारिंशत्सङ्ख्यं प्रतीन्द्रियं प्रतिपत्तव्यम् । अनिन्द्रिय प्रत्यक्षस्य चोक्तप्रकारेणाष्टचत्वारिंशद्भेदेन मनोनयनरहितानां चतुर्णामपीन्द्रियाणां व्यञ्जनावग्रहस्याष्टचत्वारिंशद्भेदेन च समुदितस्येन्द्रियप्रत्यक्षस्य षट्त्रिंशदुत्तरा त्रिशती सङ्ख्या प्रतिपत्तव्या।
ननु स्वसंवेदनभेदमन्यदपि प्रत्यक्षमस्ति, तत्कथं नोक्तमिति न वाच्यम्; तस्य सुखादिज्ञानस्वरूपसंवेदनस्य मानसप्रत्यक्षत्वात्, इन्द्रियज्ञानस्वरूपसंवेदनस्य चेन्द्रियसमक्षत्वात् । अन्यथा तस्य स्वव्यवसायायोगात् । स्मृत्यादिस्वरूपसंवेदनं मानसमेवेति नापरं स्वसंवेदनं नामाध्यक्षमस्ति ।
ननु प्रत्यक्षस्योत्पादकं कारणं वदता ग्रन्थकारेणेन्द्रियवदर्थालोकावपि किं न कारणत्वेनोक्तौ ? तदवचने कारणानां साकल्यस्यासमहाद्विनेयव्यामोह एव स्यात,
पर भी बहु आदि बारह विषयों के भेद से अड़तालीस भेद रूप प्रत्येक इन्द्रिय के प्रति जानना चाहिए। अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के उक्त प्रकार अड़तालीस भेद के साथ ( अप्राप्यकारी होने से ) मन और नयन से रहित श्रोत्र, त्वक, जिह्ना और घ्राणेन्द्रियों के व्यञ्जनावग्रह के ४८ भेद के . साथ एकत्रित इन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्ष की ३३६ संख्या जाननी चाहिए।
विशेष—सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप मति ज्ञान के ३३६ भेद होते हैं। - पाँच इन्द्रियाँ और मन छहों के अर्थावग्रह आदि चार चार के हिसाब से चौबीस भेद हुए तथा उनमें चार प्राप्यकारी इन्द्रियों के चार व्यञ्जनावग्रह जोड़ने से अट्ठाईस हुए। इन सबको बहु, अल्प, बहुविध, अल्पविध आदि बारह-बारह भेदों से गुणा करने पर ३३६ भेद होते हैं। भेदों की यह गणना स्थूल दृष्टि से है। वास्तव में तो प्रकाश आदि की स्फुटता, अस्फुटता, विषयों की विविधता और क्षयोपशम की विचित्रता के आधार पर तरतम भाव वाले असंख्य होते हैं ।
बौद्ध-स्वसंवेदन नामक एक अन्य भेद भी है, वह क्यों नहीं कहा ?
जैन--ऐसा नहीं कहना चाहिए। सुखादि ज्ञानस्वरूप उस संवेदन का मानस प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है। इन्द्रिय ज्ञान स्वरूप संवेदन का इन्द्रिय प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है, अन्यथा स्वसंवेदन ज्ञान के स्वव्यवसायकता नहीं बन सकती है। स्मृति आदि स्वरूप संवेदन मानस प्रत्यक्ष ही है, इससे भिन्न स्वसंवेदन नाम का कोई प्रत्यक्ष नहीं है । _ नैयायिक-प्रत्यक्ष के उत्पादक कारण बतलाते हुए ग्रन्थकार ने इन्द्रिय के समान अर्थ और आलोक को कारण के रूप में क्यों नहीं कहा ?
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