SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयः समुद्देशः 'तच्च प्रत्यक्षं द्वेधा, मुख्य-संव्यवहारभेदादिति मनसि कृत्य प्रथमं सांव्यवहारिक प्रत्यक्षोत्पादिकां सामग्री तद्भेदं च प्राह 'इन्द्रियानिन्द्रिय निमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम् ॥५॥ विशदं ज्ञानमिति चानुवर्तते । देशतो विशदं ज्ञानं सांव्यवहारिकमित्यर्थः । समीचीनः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो व्यवहारः, तत्र भवं सांव्यवहारिकं । पुनः किम्भतम् ? इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । इन्द्रियं चक्षुरादि, अनिन्द्रियं मनः ते निमित्त कारणं यस्य । समस्तं व्यस्तं च कारणमभ्युपगन्तव्यम् । इन्द्रियप्राधान्यादनिन्द्रियबलाधानादुपजातमिन्द्रियप्रत्यक्षम् । अनिन्द्रियादेव विशुद्धिसव्यपेक्षादुपजायमानमनिन्द्रियप्रत्यक्षम् । तत्रेन्द्रियप्रत्यक्षमवग्रहादिधारणापर्यन्ततया चतुर्विधमपि बह्वादिद्वादशभेदमष्टहोने वाला प्रतिभास, विशेषता से युक्त वर्ण संस्थानादि का ग्रहण वैशद्य है। वह प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है, मुख्य प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, इस प्रकार मन में रखकर प्रथम सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की उत्पादक सामग्री और उसके भेद को कहते हैं । सूत्रार्थ- इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाले एकदेश विशद ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं ।। ५ ।। सूत्र में विशद और ज्ञान की अनुवृत्ति आती है। एकदेश विशद ज्ञान सांव्यवहारिक है। समीचीन प्रवृत्ति निवृत्ति रूप व्यवहार को संव्यवहार कहते हैं, उसमें होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक कहते हैं। पुनः सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कैसा है ? इन्द्रिय और मन जिसके कारण हैं। इन्द्रियाँ चक्षुरादि हैं और अनिन्द्रिय मन है, वे जिसके निमित्त = कारण हैं। इन्द्रिय और मन ये समस्त भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के कारण हैं और पृथक्पृथक भी कारण हैं, ऐसा मानना चाहिए। इन्द्रिय की प्रधानता से और मन की सहायता से उत्पन्न ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम लक्षण वाली विशुद्धि की अपेक्षा सहित केवल मन से ही उत्पन्न होने वाले ज्ञान को अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते हैं। इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष इन दोनों के मध्य इन्द्रिय प्रत्यक्ष अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से चार प्रकार का होने १. इन्दति परमैश्वर्यमनुभवतीति इन्द्र आत्मा, इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियम् । २. ईषदिन्द्रियमनिन्द्रियम् । ३. ज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमलक्षणा विशुद्धिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy