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प्रमेयरत्नमालायां सर्वाऽपि परिच्छित्तिः प्रामाण्यात्मिका; प्रामाण्यं तु परिच्छित्त्यात्मकमेवेति न दोषः। यदप्युक्तम्- 'बाधककारण दोषज्ञानाभ्यां प्रामाण्यमपोद्यत इति' तदपि फल्गु-भाषितमेत्र; अप्रामाण्येऽपि तथा वक्तु शक्यत्वात् । तथा हि-प्रथम मप्रमाणमेव ज्ञानमुत्पद्यते, पश्चादबाधबोधगुणज्ञानोत्तरकालं तदपोद्यत इति । तस्मात्प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा 'स्वकार्ये क्वचिदभ्यासानभ्यासापेक्षया स्वतः परतश्चेति निर्णतव्यमिति ।
देवस्य सम्मतमपास्तसमस्तदोषं
वोक्ष्य प्रपञ्चरुचिरं रचितं समस्य । माणिक्यनन्दिविभुना शिशुबोधहेतो
निस्वरूपममना२ स्फुटमभ्यधायि ।। ६ ।। इति परीक्षामुखलघुवृत्तौ प्रमाणस्य स्वरूपोद्देशः ॥ १ ॥
जैन-ऐसा नहीं कहना चाहिए। समस्त परिच्छित्तियाँ प्रामाण्यात्मक नहीं होती हैं, किन्तु प्रामाण्य परिच्छित्त्यात्मक ही होता है, अतः कोई दोष ( विरोध ) नहीं है।
जो कहा गया है कि ज्ञानावरणादि बाधक कारण और (काचकामलादि) दोष के ज्ञान से (परिच्छित्त्यात्मक) प्रामाण्य का निराकरण कर दिया जाता है, वह भी सार रहित है; क्योंकि अप्रामाण्य के विषय में भी वेसा कहना सम्भव है, क्योंकि प्रथम अप्रमाण ही ज्ञान उत्पन्न होता है, पश्चात् बाधा रहित ज्ञान और गण का ज्ञान उत्पन्न होता है। बाद में उसके उत्तरकाल में उस अप्रमाण रूप ज्ञान का निराकरण होता है। अतः प्रमाणता और अप्रमाणता अर्थ की परिच्छित्ति लक्षण स्वकार्य में क्वचित् अभ्यास दशा की अपेक्षा स्वतः और अनभ्यास दशा की अपेक्षा परतः उत्पन्न होती है, ऐसा निर्णय करना चाहिए।
भट्टाकलंकदेव के द्वारा जो सम्मत है, जिसमें समस्त दोषों का निराकरण कर दिया है, जो विस्तृत और सुन्दर है, ऐसे प्रमाण के स्वरूप को माणिक्यनन्दी स्वामी ने देखकर शिशुओं के बोध के लिए ( परीक्षामुख नामक ग्रन्थ में ) संक्षेप से रचा । उसी को मुझ अनन्तवीर्य ने स्पष्ट रूप से कहा है ।। ६॥ ___ इस प्रकार परीक्षामुख की लघुवृत्ति में प्रमाण के स्वरूप का कथन करने वाला प्रथम उद्देश समाप्त हुआ।
१. अर्थपरिच्छित्तिलक्षणे। २. अदस्तु विप्रकृष्टं दूरतरं तेन, अनन्तवीर्येण मया ।
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