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प्रथमः समुदेशः नात् । अनभ्यस्ते तु जलमरीचिकासाधारणप्रदेशे जलज्ञानं परापेक्षमेव । सत्यमिदं जलम्, विशिष्टाकारधारित्वात्, घटचेटिकापेटक-दुर्द राराव-सरोजगन्धवत्त्वाच्च; परिदृष्टजलवदित्यनुमानज्ञानादर्थक्रियाज्ञानाच्च स्वतः 'सिद्धप्रामाण्यात् प्राचीनज्ञानस्य यथार्थत्वमाकल्पमवकल्प्यत एव । यदप्यभिमतम्-प्रामाण्यग्रहणोत्तरकालमुत्पत्त्यवस्थातः परिच्छित्तेविशेषो' नावभासत इति' । तत्र यद्यभ्यस्तविषये नावभासत इत्युच्यते, तदा तदिष्यत एवं । तत्र प्रयममेव निःसंशयं विषयपरिच्छित्तिविशेषाभ्युपगमात् । अनभ्यस्त विषये तु तद्ग्रहणोत्तरकालमस्त्येव विषयावधारणस्वभावपरिच्छित्तिविशेषः, पूर्व प्रमाणाप्रमाणसाधारण्या एव परिच्छितेरुत्पत्तेः। ननु प्रामाण्य-परिच्छित्योरभेदात्कथं पौर्वापर्यमिति ? नवम्, न हि
प्रदेश में ही पर की अपेक्षा नहीं होती, ऐसी व्यवस्था है। अनभ्यस्त जल और मरीचिका वाले साधारण प्रदेश में जलज्ञान (अनुमानादि) पर की अपेक्षा से हो उत्पन्न होता है। यह जल सत्य है, क्योंकि वह विशिष्ट आकार का धारक है । यहाँ पनिहारिनों का समूह है, मेढकों की ध्वनि हो रही है, कमलों की सुगन्धि आ रही है । इन सब कारणों से भी जल की सत्यता स्पष्ट है। जैसे कि प्रत्यक्ष देखे हुए जल का ज्ञान सत्य होता है। इस प्रकार के अनुमान ज्ञान से और जल की स्नान पानादि रूप अर्थक्रिया के ज्ञान से स्वतः सिद्ध प्रामाण्य (प्रत्यक्षानुमानलक्षणज्ञान) से पूर्व में उत्पन्न हुए (जल) ज्ञान की परमार्थता कल्पकाल पर्यन्त निश्चित होती है।
जो यह कहा था कि प्रामाण्य के ग्रहण के उत्तरकाल में उत्पत्ति अवस्था से लेकर अनुमान सापेक्ष परिच्छित्ति विशेष का अवभासन नहीं होता है सो यदि अभ्यस्त विषय में प्रतिभासित नहीं होता, ऐसा कहा जाता है तो यह हमें इष्ट ही है। वहाँ पर प्रथम ही निःसन्देह रूप से विषय की परिच्छित्ति विशेष स्वीकार की गई है। अनभ्यस्त विषय में तो प्रमाण के ग्रहण के उत्तरकाल में विषय के निश्चय करने रूप स्वभाव वाली परिच्छित्ति की विशेषता प्रतिभासित होती ही है। क्योंकि (अनभ्यस्त विषय में ) पहले प्रमाण और अप्रमाण में समान रूप से रहने वाली हो परिच्छित्ति उत्पन्न होती है ।
मीमांसक-प्रामाण्य और परिच्छित्ति में अभेद होने से पौर्वापर्व कैसे है ? १. प्रत्यक्षानुमानलक्षण ज्ञानात् । २. अनुमानसापेक्षं परिच्छित्तिविशेषः ।
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