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प्रथमः समुद्देशः
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'लिङ्गस्य चक्षुरादेर्वा तत्स्वरूप साकल्यमेव गुणः कथं न भवेत् ? आप्तोक्तेऽपि शब्दे मोहादिलक्षणस्प दोषस्याभावमेव यथार्थज्ञानादिलक्षणगुणसद्भावमभ्युपगच्छन्नन्यत्र तथा नेच्छतीतो कथमनुन्मत: ? अथोक्तमेत्र - शब्दे गुणा सन्तोऽपि न प्रामाण्योत्पत्ती व्याप्रियन्ते, किन्तु दोषाभाव एवेति । सत्यमुक्तम्, किन्तु न युक्तमेतत् प्रतिज्ञामात्रेण साध्यसिद्धेरयोगात् । न हि गणेभ्यो दोषाणामभाव इत्यत्र किञ्चिन्निबन्धनमुत्पश्यामोऽन्यत्र महामोहात् । अथानुमानेऽपि त्रिरूपलिङ्गमात्रजनितप्रामाण्योपलब्धिरेव तत्र हेतुरिति चेन्न उक्तोत्तर" त्वात् । तत्र हि त्रैरूप्यमेव गुणो यथा तद्वैकल्यं दोष इति नासम्मतो हेतुः । अपि चाप्रामाण्ये -
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मीमांसक - स्वरूप की विकलता हो दोष है ।
जैन - तो कारण के और नेत्रादि के अपने स्वरूप की सकलता को ही गुण क्यों नहीं माना जाय । आप्त के कहे हुए आगम में भी मोह, राग, द्वेषादि लक्षण वाले दोष के अभाव को ही यथार्थ ज्ञान, वैराग्य क्षमा आदि लक्षण वाले गुण के सद्भाव को स्वीकार करते हुए भी अन्यत्र ( प्रत्यक्षादि की उत्पत्ति की विशेष सामग्री चक्षु आदि की निर्मलता आदि में) गुण के सद्भाव को नहीं मानते हैं । इस प्रकार वे मोमांसक उन्मत्त कैसे न हों ?
आपने जो कहा है कि आगम में ( पूर्वापरविरोधरहितत्वादि ) गुणों का सद्भाव होने पर भी वे प्रामाण्य की उत्पत्ति में व्यापार नहीं करते हैं, किन्तु दोष का अभाव ही प्रामाण्य को उत्पत्ति में व्यापृत होता है । यह बात सही है, किन्तु यह युक्त नहीं है । वचन मात्र से साध्य को सिद्धि का योग नहीं होता है । गुणों से दोषों का अभाव होता है । इत्यादि वचन में आपके महामोह को छोड़कर कुछ भी कारण नहीं देखते हैं ।
मीमांसक - अनुमान में भी त्रिरूप लिङ्गमात्र से जनित प्रामाण्य की उपलब्धि ही दोष के अभाव में कारण है ।
जैन - यह बात ठीक नहीं है । उसका उत्तर ( कारण के और नेत्रादि के अपने स्वरूप की सकलता को ही गुण क्यों नहीं में) उत्तर दिया जा चुका है। हेतु में त्रिरूपता का
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१. कारणस्य ।
२. आदिशब्देन रागद्वेषी गृह्येते ।
३. अनुमानादपि गुणाः प्रतीयन्ते न केवलं प्रत्यक्षादित्यपि शब्दार्थः ।
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४. दोषाभावे ।
५.
तह लिङ्गस्य चक्षुरादेर्वा तत्स्वरूपसाकल्यमेव गुण इत्यादिप्रकारेण |
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माना जाय इस रूप
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होना ही गुण है, जैसे
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