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प्रमेयरत्नमालायां
तदेतत्सर्वमनल्पतमोविलसितम् । तथाहि-न तावत्प्रामाण्यस्योत्पत्तौ सामग्रचन्तरापेक्षत्वमसिद्धम्, आप्तप्रणीतत्वलक्षणगुणसन्निधाने सत्येवाऽऽप्तप्रणीतवचनेषु प्रामाण्यदर्शनात् । यद्भावाभावाभ्यां यस्योत्पत्त्यनुत्पत्ती तत् तत्कारणकमिति लोकेऽपि सुप्रसिद्धत्वात् । यदुक्तं-'विधिमुखेन वा गुणानामप्रतीतिरिति' तत्र तावदाप्तप्रणीतशब्देन प्रतीतिगुणानामित्ययुक्तम्, आप्त प्रणीतत्त्वहानिप्रसङ्गात् । अय चक्षुरादौ गणानामप्रतोतिरित्युच्यते, तदप्ययुक्तम, नैर्मल्यादिगुणानामबलाबालादिभिरप्युपलब्धः। अथ नर्मल्यं स्वरूपमेव', न गणः; तहि हेतोरविताभाववैकल्यमपि स्वरूपविकलव, न दोष इति समानम् । अथ तद्वैकल्यमेव दोषः; हि वह अपने अन्यथा प्रतीति रूप विषय ( रजन ) से पुरुष को निवृत्त नहीं करती है । तात्पर्य यह है कि जब सीप में चाँदी का ज्ञान होता है, तब उसकी निवृत्तिलक्षण रूप कार्य में यह रजत नहीं है, अपितु सीप है, इस प्रकार ज्ञप्ति पक्ष में अप्रामाण्य परतः ही होता है, यह प्रदर्शित किया गया है।
जैन-यह सब अत्यधिक अज्ञान रूप अन्धकार के विलास के समान है। इसी को स्पष्ट करते हैं:-प्रामाण्य की उत्पत्ति म (नैर्मल्यादि गुण रूप) अन्य सामग्री की अपेक्षा होना असिद्ध कहा, वह ठीक नहीं है; क्योंकि आप्त के द्वारा प्रणीत होना लक्षण रूप गुण के सन्निधान होने पर हो आप्त प्रणीत वचनों में प्रामाण्य देखा जाता है। जिसके होने पर जिसकी उत्पत्ति हो और जिसके न होने पर जिसकी उत्पत्ति न हो। वह कारण होता है । यह बात लोक में भी सुप्रसिद्ध है । जो कहा गया हैगुणों की अप्रतीति विधिमुख से या कार्यमुख से होती है। उनमें आप्त प्रणीत शब्द में गुणों की प्रतीति नहीं होती है, यह बात ठीक नहीं है; क्योंकि इससे तो आप्त प्रणीतत्व की हानि का प्रसंग उपस्थित हो जायगा। मीमांसकों ने जो यह कहा है कि चक्षुरादि में गुणों की प्रतोति नहीं होती है, वह भी अयुक्त है। क्योंकि नेत्रादि में निर्मलता आदि गगों की उपलब्धि स्त्रियों और बालकों को भी होती है।
मीमांसक-निर्मलता ( गुण और गुणी में अभेद के कारण ) स्वरूप ही है, गुण नहीं है ?
जैन-तो हेतु के अविनाभाव की विकलता भी स्वरूप की विकलता ही है, दोप नहीं है, यह भी समान है। अर्थात् जैन नैर्मल्यादि गुणों का अभाव होने पर स्वतः प्रामाण्य जैनों के आता है उसी प्रकार दोषों का अभाव होने पर स्वतः अप्रामाण्य मीमांसकों के भी होगा। १. गुण-गुणिनोरभेदात् ।
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