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प्रथमः समुद्देशः विप्रतिपत्तिषु मध्ये स्वरूपविप्रतिपत्तिनिराकरणार्थमाह
मध्य में स्वरूप विप्रतिपत्ति के निराकरण के लिए कहते हैं--
विशेषार्थ-स्वरूप विप्रतिपत्ति जैसे-आर्हत् मतानुयायी स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाग मानते हैं। कपिल के अनुयायी इन्द्रिय वृत्ति को प्रमाण मानते हैं। प्रभाकर के अनुयायी प्रमाता के व्यापार को प्रमाण कहते हैं । भट्ट के अनुयायो अनधिगतार्थगन्त प्रमाणम् ऐसा कहते हैं। बौद्ध लोग अविसंवादि ज्ञान को प्रमाण मानते हैं। योग (न्यायवैशेषिक ) प्रमा के करण को प्रमाण कहते हैं । जयन्त के अनुयायी कारक साकल्य को प्रमाण कहते हैं । इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध सन्निकर्ष है। कारकों के समूह का नाम कारक साकल्य है। लघु नैयायिक सन्निकर्ष को प्रमाण मानते हैं। वृद्ध नैयायिक कारक साकल्य को प्रमाण मानते हैं।
संख्या विप्रत्तिपत्ति-चार्वाक केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं। बौद्ध प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण मानते हैं। सांख्य प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द तीन प्रमाण मानते हैं। नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द चार प्रमाण मानते हैं। प्रभाकर के अनुयायी प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द और अर्थापत्ति इन पाँच प्रमाणों को मानते हैं। भट्ट के अनुयायी प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अभाव ये छः प्रमाण मानते हैं। पौराणिक इनके अतिरिक्त संभव और ऐतिह्य प्रमाणों को मानते हैं। यह सब युक्त नहीं हैं। जैनों का कहना है कि प्रमाण दो प्रकार का होता है-१-प्रत्यक्ष २-परोक्ष ।
विषय विप्रतिपत्ति-कपिल के अनुयायी और पुरुषाद्वैतवादी कहते हैं कि प्रमाणतत्त्व का सामान्य ही विषय है, विशेष नहीं। बौद्ध कहते हैं कि प्रमाण तत्त्व का विशेष ही विषय है, सामान्य नहीं। यौगों का कहना है कि प्रमाण का विषय सामान्य और विशेष दोनों स्वतन्त्र रूप से है। मीमांसक अभेद रूप से सामान्य और विशेष को प्रमाण का विषय मानते हैं। जैन लोग सामान्य और विशेष में कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद मानकर सामान्यविशेषात्मक वस्तु को प्रमाण का विषय मानते हैं।
फल विप्रतिपत्ति-कपिल के अनुयायो और योग फल को प्रमाण से भिन्न मानते हैं। बुद्ध के अनुयायी प्रमाण से फल को अभिन्न ही मानते हैं। जैन कहते हैं कि प्रमाण से फल कथंचित् भिन्न है, कथञ्चित् अभिन्न है।
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