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तृतीयः समुद्देशः
२२७ परीक्षादक्षः स्वप्रारब्धशास्त्रं निरूढवांस्तथाऽहमपीत्यर्थः । . अकलङ्कशशाङ्गैर्यत्प्रकटीकृतमखिलमाननिभनिकरम् । तत्सक्षिप्तं
सूरिभिरुरुमतिभिव्यक्तमेतेन ।। १२ ।। इति परीक्षामुखलघुवृत्तौ प्रमाणाद्याभाससमुद्दशः षष्ठः ।
उसका आदर्श के रूप में निरूपण है ।
किसके समान ? परोक्ष में दक्ष के समान । जैसे परीक्षा में दक्ष अपने प्रारम्भ किये हुए शास्त्र को पूरा करके निर्वाह करता है उसी प्रकार मैंने भी अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है।
श्लोकार्थ-अकलंक देव रूपी चन्द्रमा के द्वारा जो प्रमाण और प्रमाणाभास का समूह प्रकट किया गया है उसे विशाल बद्धि आचार्य माणिक्यनन्दि ने संक्षिप्त किया, उसे ही इस टीका द्वारा ( अनन्तवीर्य ने) व्यक्त किया है ।।१२॥
विशेष-समस्त वादियों ने प्रमाणों की संख्या भिन्न-भिन्न कही है । चार्वाक केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं। बौद्धों के यहाँ प्रत्यक्ष
और अनुमान दो प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान और शाब्द ये तीन प्रमाण सांख्य मानता है, नैयायिक लोग प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण मानते हैं। भाट्ट लोग प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द, उपमान और अर्थापत्ति ये पाँच प्रमाण मानते हैं। मीमांसक प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव प्रमाण मानते हैं। जैन परोक्ष और प्रत्यक्ष दो प्रमाण मानते हैं।
टिप्पणकार ने अपने-अपने तर्क के भेद से छह दर्शन माने हैं-जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव और चार्वाक । इस प्रकार परीक्षामुख की लघुवृत्ति में प्रमाणाभासादि
वर्णनपरक षष्ठ समुद्देश पूर्ण हुआ।
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