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प्रमेयरत्नमालायां कथमेषामस्वसंविदितादीनां तदाभासतेत्यत्राऽऽह
स्वविषयोपदर्शकत्वाभावात् ॥ ३ ॥ गतार्थमेतत् । अत्र दृष्टान्तं यथाक्रममाहपुरुषान्तरपूर्वार्थगच्छत्तॄणस्पर्शस्थाणुपुरुषादिज्ञानवत् ॥४॥
पुरुषान्तरञ्च पूर्वार्थश्च गच्छत्तृणस्पर्शश्च स्थाणुपुरुषादिश्च तेषां ज्ञानम्, तद्वत् । अपरं च सन्निकर्षवादिनं प्रति दृष्टान्तमाह
चक्रसयोर्द्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च ॥५॥ अयमों यथा चक्षुरसयोः संयुक्तसमवायः सन्नपि न प्रमाणम्, तथा चक्षुरूपयोरपि । तस्मादयमपि प्रमाणाभास एवेति । उपलक्षणमेतत् अतिव्याप्तिकथन
इन अस्वसंविदितादि के प्रमाणभासता क्यों है ? इस विषय में कहते
सूत्रार्थ-क्योंकि वे अपने विषय का निश्चय नहीं कराते हैं ।। ३ ।। इस सूत्र का अर्थ कहा जा चुका है। अब यथाक्रम रूप से दृष्टान्त कहते हैं
सूत्रार्थ-अस्वसंविदित ज्ञान प्रमाण नहीं होता है; क्योंकि वह अपने विषय का निश्चायक नहीं होता है जैसे-दूसरे पुरुष का ज्ञान । गृहीतार्थ ज्ञान प्रमाण नहीं होता है; क्योंकि वह अपने विषय का निश्चायक नहीं होता है, जैसे पूर्व में जाने हुए पदार्थ का ज्ञान । निर्विकल्प ज्ञान प्रमाण नहीं होता है; क्योंकि वह अपने विषय का निश्चायक नहीं होता है। जैसे-जाते हुए पुरुष के तृण स्पर्शादि का ज्ञान । संशयादि ज्ञान भी प्रमाण नहीं होता है; क्योंकि वह अपने विषय का निश्चायक नहीं होता है, जैसे--स्थाणु पुरुषादि का ज्ञान ।
(टिप्पण) पुरुषान्तरञ्च पूर्वार्थश्च गच्छत्तृणस्पर्शश्च स्थाणुपुरुषादिश्च तेषां ज्ञानम् तद्वत्, सूत्र में इस प्रकार द्वन्द्व समास कर लेना चाहिये।
सन्निकर्षवादी के प्रति दूसरा दृष्टान्त कहते हैंसत्रार्थ-द्रव्य में चक्षु और रस के संयुक्त समवाय के समान ।। ५ ॥
( सूत्र का ) यह अर्थ है कि जिस प्रकार चक्षु और रस का संयुक्त समवाय होने पर भी प्रमाण नहीं है, उसी प्रकार चक्षु और रूप का भी संयुक्त समवाय प्रमाण नहीं है । अतः यह भी प्रमाणाभास ही है। यह
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