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षष्ठः समुद्देशः
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तच्च स्वविषयानुपदर्शकत्वादप्रमाणम्, व्यवसायस्यैव तज्जनितस्य तदुपदर्शकत्वात् । अथ व्यवसायस्थ प्रत्यक्षाकारेणानुरक्तत्वात् ततः प्रत्यक्षस्यैव प्रामाण्यम्, व्यव - सायस्तु गृहीतग्राहित्वादप्रमाणमिति । तन्न सुभाषितम्, दर्शनस्याविकल्पकस्यानुपलक्षणात् तत्सद्भावायोगात् । सद्भावे वा नीलादाविव क्षणक्षयादावपि तदुप - दर्शकत्वप्रसङ्गात् । तत्र विपरीतसमारोपान्नेति चेत्तर्हि सिद्धं नीलादी समारोपविरोधिग्रहणलक्षणो निश्चय इति तदात्मकमेव प्रमाणम्, इतरत्तदाभासमिति ।
संशयादयश्च प्रसिद्धा एव । तत्र संशय उभयकोटिसंस्पर्शी स्थाणुर्वा पुरुषो वेति परामर्शः । विपर्ययः पुनरतस्मिंस्तदिति विकल्पः । विशेषानवधारणमनध्य
वसायः ।
प्रमाण नहीं है; क्योंकि इसमें अज्ञाननिवृत्तिलक्षण वाले फल का अभाव है । ऐसा कहा जाता है कि जो प्रमाण होता है, वह फलवान् होता है ) । बौद्धों द्वारा माना गया निर्विकल्पक प्रत्यक्ष दर्शन नामका प्रमाणाभास है । वह दर्शन अपने विषय का उपदर्शक न होने से अप्रमाण है । दर्शन से उत्पन्न निश्चयात्मक ज्ञान ही अपने विषय का उपदर्शक है ।
बौद्ध - निश्चय रूप सविकल्पज्ञान प्रत्यक्ष के आकार से अनुरक्त है ( सविकल्प प्रत्यक्ष में साक्षात्प्रमाणत्व का अभाव है ) अतः निर्विकल्प के ही प्रामाण्य है । निश्चय रूप सविकल्प ज्ञान गृहीतग्राही होने के कारण अप्रमाण है ।
जैन -- बौद्धों का यह कहना सुभाषित नहीं; क्योंकि विकल्परहित दर्शन की उपलब्धि न होने से उसका सद्भाव नहीं है । यदि सद्भाव मान लिया जाय तो नीलादि के समान क्षणक्षयादि में भी उसके उपदर्शकपने का का प्रसंग आता है ।
बौद्ध-क्षणक्षयादि में विपरीत अक्षणिक का संशयादि रूप समारोप हो जाने से वह उसका उपदर्शक नहीं हो सकता ।
जैन - तब तो नीलादि में समारोप के विरोधी ग्रहण लक्षण वाला निश्चय स्वीकार कर लेने से तदात्मक अर्थात् व्यवसायात्मक दर्शन ही प्रमाण है और जो उससे भिन्न है अर्थात् अनिश्चयात्मक है, वह निर्वि -कल्प दर्शन प्रमाणाभास है ।
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संशयादिक प्रमाणाभास प्रसिद्ध ही हैं । इनमें संशय उभयकोटिस्पर्शी परामर्श होता है । जैसे - यह स्थाणु है या पुरुष ? जो वस्तु जैसी नहीं है, उसमें वैसी होने की कल्पना करना विपर्यय है । विशेष के नाम, जाति आदि का निश्चय न कर पाना अनध्यवसाय है ।
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