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________________ चतुर्थः समुदेशः १८७ वभिलाषाभावप्रसङ्गाच्च । अभिलाषो हि प्रत्यभिज्ञाने भवति, तच्च स्मरणे, स्मरणं चानुभवे भवतोति पूर्वानुभवः सिद्धः । मध्यदशायां तथैव व्याप्तेः। मृतानां रक्षोयक्षादिकुलेषु स्वयमुत्पन्नत्वेन कथयतां दर्शनात्, केषाञ्चिद्, भवस्मृतेरुपलम्भाच्चानादिश्चेतनः सिद्ध एव । तथा चोक्तम् तदहर्जस्तनेहातो रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः । भूतानन्वयनात्सिद्धः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥ ४० ॥ इति न च स्वदेहप्रमितिरात्मेत्यत्रापि प्रमाणाभावात् सर्वत्र संशय इति वक्तव्यम्; तत्रानुमानस्य सद्भावात् । तथाहि- देवदत्तात्मा तदेह एव; तत्र सर्वत्रैव च विद्यते, तत्रैव तत्र सर्वत्रैव च स्वासाधारणगुणाधारतयोपलम्भात् । यो यत्रैव यत्र स्तनपान की जो अभिलाषा होती है, उसके भी अभाव का प्रसंग आ जायगा । अभिलाषा प्रत्यभिज्ञान होने पर होती है, प्रत्यभिज्ञान स्मरण होने पर होता है, स्मरण अनुभव होने पर होता है, इस प्रकार पूर्वानुभव सिद्ध है। मध्यदशा में भी उसी प्रकार से अभिलाषा आदि की व्याप्ति सिद्ध ही है। ( चैतन्य की अभिलाषा का कारण प्रत्यभिज्ञान है, वह स्मरणपूर्वक होता है, स्मरण पूर्वानुभव होने पर होता है, इस प्रकार को व्याप्ति सिद्ध है। मत व्यक्ति, राक्षस, यक्ष आदि के कूलों में स्वयं उत्पन्न होने का कथन करते हए देखे जाते हैं, पूर्वजन्म की स्मृति की प्राप्ति से भी चेतन सिद्ध ही है । जैसा कि कहा गया है श्लोकार्थ-तत्काल उत्पन्न बालक के स्तनपान की इच्छा से, राक्षसादि के देखने से, पूर्वजन्म की स्मृति से और पृथिवी आदिभूत चतुष्टय के अन्वय का अभाव पाया जाने से स्वभाव से ज्ञाता और द्रव्य रूप से नित्य आत्मा सिद्ध है ।। ४० ॥ आत्मा स्वदेह परिमाण है, इस विषय में प्रमाण का अभाव होने से सब जगह संशय है। ऐसा नहीं कहना चाहिये; क्योंकि इस विषय में अनुमान का सद्भाव है। इसी बात को स्पष्ट करते हैं--देवदत्त का आत्मा उसके देह में ही है और उसके सब प्रदेशों में ही विद्यमान है। क्योंकि यह उसके शरीर में और सब प्रदेशों में ही अपने असाधारण गुणों के आधार रूप से उपलब्ध होता है। जो जहाँ पर और जहाँ सब जगह अपने असाधारण गुणों के आधार रूप से पाया जाता है, वह वहाँ पर और वहाँ के सब प्रदेशों में ही विद्यमान है। जैसे देवदत्त के घर में और उसके सर्वभाग में अपने असाधारण भासुरत्व आदि गुण वाला प्रदीप पाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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