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________________ १८६ प्रमेयरत्नमालायां इति वचनात् । न प्रत्यक्षं तद्-ग्रहणोपायः, सम्बन्धाभावात् । इन्द्रियार्थसन्निकर्षजं हि प्रत्यक्षं तन्मते प्रसिद्धम् । विशेषण-विशेष्यभावकल्पनायामभावस्य नागृहीतस्य विशेषणत्वमिति तदेव दूषणम् । तस्मान्न व्यापकमात्मद्रव्यम् । नापि वटकणिकामात्रम्, कमनीयकान्ताकुचजघनसंस्पर्शकाले प्रतिलोमकूपमाल्हादनाकारस्य सुखस्यानुभवात् । अन्यथा सर्वाङ्गीणरोमाञ्चादिकार्योदयायोगात् । आशुवृत्त्याऽऽलातचक्रवत्क्रमेणैव तत्सुखमित्यनुपपन्नम्, परापरान्तःकरणसम्बन्धस्य तत्कारणस्य परिकल्पनायां व्यवधानप्रसङ्गात् । अन्यथा सुखस्य मानसप्रत्यक्षत्वायोगादिति । नापि पृथिव्यादिचतुष्टयात्मकत्वमात्मनः सम्भाव्यते, अचेतनेभ्यश्चैतन्योत्पत्त्ययोगाद् धारणेरण'द्रवोष्णता लक्षणान्वयाभावाच्च । तदर्हजातबालकस्य स्तनादा जो अग्रहीत है, वह विशेषण नहीं हो सकता है। विशेषण के नहीं ग्रहण करने पर विशेष्य में बुद्धि नहीं होती है, ऐसा न्याय का वचन है। प्रत्यक्ष से तुच्छ अभाव के ग्रहण करने का उपाय नहीं है; क्योंकि दोनों में सम्बन्ध का अभाव है। योगों के मत में इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न प्रत्यक्ष प्रसिद्ध है। विशेषण विशेष्य भाव की कल्पना करने पर अभाव जब तक ग्रहण न कर लिया जाय, जब तक विशेषणपना नहीं बन सकता, इस प्रकार वही दोष यहाँ प्राप्त होता है। अतः आत्मद्रव्य. व्यापक नहीं है। आत्मा वटकणिकामात्र भी नहीं है, क्योंकि सुन्दर स्त्री के स्तन और जघन के स्पर्श के काल में प्रत्येक रोमकूप में आह्लाद उत्पन्न करने वाले सुख का अनुभव होता है । अन्यथा समस्त अंगों में रोमाञ्चादि नहीं होना चाहिये । शीघ्रता के कारण अलातचक्र के समान वह सुख क्रम से ही है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सुख के कारण स्वरूप अन्तःकरण के नये-नये सम्बन्ध की कल्पना करने पर सुख के व्यवधान का प्रसंग आता है । अन्यथा सुख की मानसप्रत्यक्षता नहीं होगी। ___आत्मा के पृथिव्यादिचतुष्टयरूप होने की भी सम्भावना नहीं है। अचेतनों से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। धारण, ईरण, द्रव और उष्णता लक्षण स्वभाव वाले जो क्रमशः पृथिवी, वायु, जल, अग्नि हैं, उनका चैतन्य के साथ अन्वय नहीं है। तत्कालीन उत्पन्न हुए शिशु के १. धारणलक्षणा पृथिवी। ३. द्रवलक्षणं जलम् । २. ईरणलक्षणो वायुः। ४. उष्णतालक्षणोऽग्निः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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