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________________ चतुर्थः समुद्देशः नापि सामान्यविशेषौ परस्परानपेक्षाविति यौगमतमपि युक्तियुक्तमवभाति, तयोरन्योन्यभेदेद्वयोरन्यतरस्यापि व्यवस्थापयितुमशक्तेः । तथाहि - विशेषास्ततावद् द्रव्यगुणकर्मात्मानः सामान्यं तु परापरभेदाद् द्विविधम् । तत्र पर सामान्यात्सत्तालक्षणाविशेषाणां भेदेऽसत्त्वापत्तिरिति । तथा च प्रयोगः - द्रव्यगुणकर्माण्यसद्रूपाणि सत्त्वादत्यन्तं भिन्नत्वात् प्रागभावादिवदिति । न सामान्यविशेषसमवायै - र्व्यभिचारः तत्र स्वरूपसत्त्वस्याभिन्नस्य परैभ्युपगमात् । " सामान्य और विशेष परस्पर निरपेक्ष हैं. यह यौगमत भी युक्तियुक्तप्रतीत नहीं होता है । निरपेक्ष सामान्य और विशेष में परस्पर अभेद: मानने पर दोनों में किसी एक की भी व्यवस्था करना सम्भव नहीं है । इसी बात को स्पष्ट करते हैं- विशेष तो द्रव्य, गुण और कर्मस्वरूप हैंऔर सामान्य पर और अपर दो प्रकार का होता है । ( सामान्य की आधार भूत व्यक्तियाँ यहाँ पर विशेष शब्द से ग्रहण की जाती हैं, नित्य द्रव्य में रहने वाले अन्त्य विशेष यहाँ विशेष शब्द से ग्रहण नहीं किए. जाते हैं ।) उनमें से सत्ता लक्षण वाले पर सामान्य से विशेषों के सर्वथा भेद मानने पर उनके असत्त्व की आपत्ति आती है। इसका अनुमान प्रयोग इस प्रकार है- द्रव्य, गुण और कर्म ये तीनों पदार्थ असद् रूप हैं; क्योंकि सत्त्व से अत्यन्त भिन्न है, जैसे कि प्रागभाव आदि सत्त्व से अत्यन्त भिन्न हैं । 'सत्त्व से अत्यन्त भिन्न हैं, इस हेतु में सामान्य, विशेष और समवाय से व्यभिचार नहीं आता है; क्योंकि उनमें अभिन्न स्वरूप सत्त्व को यौगों ने माना है । १७३ विशेष - सामान्य दो प्रकार का कहा गया है - ( १ ) पर ( २ ) अपर । द्रव्यादि तीन में रहने वाली सत्ता पर रूप से कही जाती है । पर से भिन्न जो जाति है, वही अपर रूप से कही जाती है । द्रव्यत्वादिक जाति परापर कही जाती है । व्यापक होने से वह पर होती है और व्याप्य होने से अपर भी होती है । बहुत बड़े देश में व्यापित्व परत्व है, अल्पदेश व्यापित्व अपर है । Jain Education International अभाव चार प्रकार का होता है - प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव । दूध में दही आदिक नहीं है, यह प्रागभाव है । दही में दूध नहीं है, यह प्रध्वंसाभाव का उदाहरण है । तादात्म्य सम्बन्ध से अवच्छिन्न प्रतियोगिताक अन्योन्याभाव है । जैसे घड़ा वस्त्र नहीं है । कालिक संसर्गावच्छिन्न प्रतियोगिताक अत्यन्ताभाव है । जैसे इस भूतल : पर घड़ा नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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