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________________ चतुर्थः समुद्देशः गतम् । अवयवी चावयवेषु वर्तमानः किमेकदेशेन वर्तते, सर्वात्मना वा ? एकदेशेन वृत्तावयवान्तरप्रसङ्गः। तत्राप्यकदेशान्तरेणावयविनो वृत्तावनवस्था। सर्वात्मना वर्तमानोऽपि प्रत्यवयवं स्वभावभेदेन वर्तेत, आहोस्विदेकरूपेणेति ? प्रथमपक्षे अवयविबहुत्वापत्तिः। द्वितीयपक्षे तु अवयवानामेकरूपत्वापत्तिरिति । प्रत्येक परिसमाप्त्या वृत्तावप्यवयविबहुत्वमिति । तथा यदृश्यं सन्नोपलभ्यते तन्नास्त्येव; यथा गगनेन्दीवरम् । नोपलभ्यते चावयवेष्ववयवीति । तथा यद्ग्रहे यबुद्धयभावस्तत्ततो नार्थान्तरम्, यथा वृक्षाग्रहे वनमिति । ततश्च निरंशा एवान्योन्यासंस्पशिणो रूपादिपरमाणवः, ते च एकक्षणस्थायिनो न नित्याः; विनाशं प्रत्यन्यानपेक्षणात् । प्रयोगश्च-यो यद्भावं अवयव अवयवी में रहते हैं, ऐसा तो नैयायिकों ने माना नहीं है तथा अवर, वी अवयवों में रहता हुआ क्या एकदेश से रहता है या सम्पूर्ण रूप से रहता है । एकदेश से रहने पर उसके दूसरे भी अवयव होने का प्रसंग आता है। दूसरे अवयवों में भी अन्य देश से अवयवी की वृत्ति मानने पर अनवस्था दोष प्राप्त होता है। यदि कहें कि सम्पूर्ण रूप से अवयवी अवयवों में रहता है तो हमारा प्रश्न है कि एक-एक अवयव के प्रति स्वभावभेद से अर्थात् अनेक स्वभावों से रहेगा अथवा एक रूप से रहेगा ? प्रथम पक्ष में अवयवियों के बहुत होने की आपत्ति आती है। द्वितीय पक्ष मानने पर अवयवों के एक रूप होने की आपत्ति आती है। एक-एक अवयव के प्रति अवयवो के सम्पूर्ण रूप से वृत्ति मानने पर अवयवियों के बहुत होने की आपत्ति आती है। अवयवों में अवयवी नहीं है; क्योंकि देखने योग्य होने पर भी उपलब्ध नहीं होता है। जो देखने योग्य होते हुए भी नहीं उपलब्ध होता है, वह नहीं है, जैसे-आकाश कुसुम । अवयवों में अवयवी उपलब्ध नहीं होता है। तथा अवयवों से अवयवी भिन्न नहीं है, क्योंकि अवयवों के ग्रहण न होने पर 'यह अवयवी है', ऐसी बुद्धि उत्पन्न नहीं होती है। जिसके अग्रहण में जिसकी बुद्धि का अभाव है, वह उससे भिन्न नहीं है। जैसे वृक्ष के ग्रहण न होने पर वन का अभाव है। प्रथम अनुमान से अवयवों में अवयवी का अभाव सिद्ध किया, इस अवयवी के निषेध से उस प्रकार के सम्बन्ध का निषेध किया, इस प्रकार हेतु द्वय से रूपादि परमाणु निरंश और परस्पर में असंस्पर्शी ही हैं और वे एकक्षण स्थायी हैं, नित्य नहीं हैं। क्योंकि वे अपने विनाश के प्रति किसी अन्य की अपेक्षा नहीं रखते । इसका For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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