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निष्ठस्य सामस्त्येनोपलब्धस्य तथैव व्यक्त्यन्तरेऽनुपलम्भप्रसङ्गात् । उपलम्भे वा तन्नानात्वापत्तेर्युगपद् भिन्नदेशतया सामस्त्ये नोपलब्धेस्तद्व घक्तिवत्; अन्यथा व्यक्तयोऽपि भिन्ना माभूवन्निति । ततो बुद्धयभेद एव सामान्यम् । तदुक्तम्——
प्रमेयरत्नमालायां
एकत्र दृष्टो भावो हि क्वचिन्नान्यत्र दृश्यते ।
तस्मान्न भिन्नमस्त्यन्यत् सामान्यं बुद्धयभेदतः || ३६ || इति
ते च विशेषाः परस्परासम्बद्धा एव तत्सम्बन्धस्य विचार्यमाणस्यायोगात् । एकदेशेन सम्बन्धे अणुषट्केन युगपद् योगादणोः षडंशतापत्तेः । सर्वात्मनाभिसम्बन्धे पिण्डस्याणुमात्रकत्वापत्तेः । अवयविनिषेधाच्चासम्बद्धत्व मेषामुपपद्यत एव । तन्निषेधश्च वृत्तिविकल्पादिबाधनात् । तथाहि अवयवा अवयविनि वर्तन्त इति नाम्युप
क्योंकि नैयायिकादि के अनुसार माना गया, अनेक व्यक्तियों सर्वात्म रूप से व्याप्त होकर वर्तमान किसी एक सामान्य रूप तत्त्व के सम्भव होने का अभाव है । जैसे वह सामान्य रूप पदार्थ एक व्यक्तिनिष्ठ होकर सामस्त्य रूप उपलब्ध हो रहा है, उसी प्रकार उसके उसी प्रकार ही सामस्त्य रूप से व्यक्त्यन्तर अर्थात् अन्य व्यक्ति में प्राप्त न होने का प्रसङ्ग है । सामान्य प्राप्त भी हो तो नानापने की आपत्ति प्राप्त होती है; क्योंकि वह एक साथ भिन्न-भिन्न देशवर्ती व्यक्तियों में सम्पूर्ण रूप से पाया जाता है । अन्यथा व्यक्तियाँ भी भिन्न-भिन्न न हों । इसलिए सर्वत्र गो व्यक्तियों में बुद्धि का अभेद ही सामान्य है । जैसा कि कहा गया है
देखा गया पदार्थ कहीं अन्यत्र दिखाई अभेद से भिन्न अन्य कोई सामान्य
श्लोकार्थ - एक स्थान पर नहीं देता है, इसलिए बुद्धि के नहीं है ||३६||
नैयायिक मत को दोष देकर बौद्ध कहते हैं कि वे विशेष परस्पर में सम्बन्ध से रहित ही हैं, क्योंकि उनका सम्बन्ध विचार किए जाने पर सिद्ध नहीं होता है । ( सम्बन्ध एक देश से होता है या सर्वात्मना, इस प्रकार की शङ्का होने पर कहते हैं) एकदेश से सम्बन्ध मानने पर छह परमाणुओं के साथ एक साथ योग होने से परमाणु के छह अंश होने की आपत्ति प्राप्त होती है । सर्वात्मना सम्बन्ध मानने पर परमाणुओं के परस्पर में प्रवेश हो जाने से अणुमात्रपने की आपत्ति आती है । और अवयवी के निषेध से उन विशेषों के असम्बद्धपना भी प्राप्त होता है । अवयवी का निषेध वृत्तिविकल्प अर्थात् अवयवी का अवयवों में विचार करने तथा अनुमान से बाधा आने के कारण किया जाता है । इसी बात को स्पष्ट करते हैं
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