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________________ १५२ प्रमेयरत्नमालायां न्यापोहाश्रयः सम्बन्धी भवतां भवितुमर्हति । तथाहि -यदि शाबलेयादिषु वस्तुभूतसारूप्याभावोऽश्वादिपरिहारेण तत्रैव विशिष्टाभिधानप्रत्ययो कथं स्याताम् । ततः सम्बन्धिभेदाद् भेदमिच्छतापि सामान्यं वास्तवमङ्गीकर्तव्यमिति । किञ्च-अपोहशब्दार्थपक्षे सङ्केत एवानुपपन्नः; तद्ग्रहणोपायासम्भवात् । न प्रत्यक्षं तद्ग्रहणसमर्थम्, तस्य वस्तुविषयत्वात् । अन्यापोहस्य चावस्तुत्वात् । अनुमानमपि न तत्सद्भावमवबोधयति; तस्य कार्यस्वभावलिङ्गसम्पाद्यत्वात् । अपोहस्य निरुपाख्येयत्वेनानर्थ क्रियाकारित्वेन च स्वभावकार्ययोरसम्भवात् । किञ्च गोशब्दस्यागोपोहाभिधायित्वेऽगौरित्यत्र गोशब्दस्य किमभिधेयं स्यात् ? अज्ञातस्य विधिनिषेधयोरनधिकारात । अगोव्यावृत्तिरिति चेदितरेतराश्रयत्वम्-अगोव्यवच्छेदो हि गोनिश्चये भवति, स चागौर्गोनिवृत्त्यात्मा गौश्चागोव्यवच्छेदरूप इति । अगौरित्यत्रोत्तरपदार्थोऽप्यनयव दिशा चिन्तनीयः । नन्वगौरित्यत्रान्य एव विधि सामान्य के बिना अपोह का आश्रयभत सम्बन्धी आप बौद्धों के यहाँ होने योग्य नहीं है। इसी को स्पष्ट करते हैं-यदि शाबलेय आदि में वस्तुभूत सामान्य का अभाव है तो घोड़ा आदि के परिहार से गौ में ही विशिष्ट शब्द का उच्चारण और ज्ञान कैसे हो सकेगा ? चूंकि सामान्य को न मानने पर विवक्षित अपोह आश्रय सम्बन्धी सिद्ध नहीं होता है, अतः सम्बन्धी के भेद से भेद की इच्छा करने वाले सौगत को सामान्य वास्तविक रूप से अङ्गीकार करना चाहिए। दूसरी बात यह है कि अपोह ही शब्दार्थ है, इस पक्ष में सङ्केत हो नहीं बन सकता है, क्योंकि अपोह को ग्रहण करने का उपाय असम्भव है। प्रत्यक्ष प्रमाण अपोह को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष वस्तु को विषय करता है । अन्यापोह अवस्तु रूप है। अनुमान भी उस अपोह के सद्भाव का ज्ञान नहीं कराता है, क्योंकि अनुमान कार्य और स्वभाव रूप लिङ्ग से उत्पन्न होता है। अपोह के निरुपाख्य होने और जल धारण आदि अर्थक्रियाकारित्व के अभाव के कारण क्रमशः स्वभाव और कार्यहेतु असम्भव है। दूसरी बात यह है कि गो शब्द के अगो व्यावृत्ति का वाचक मानने पर 'अगौ' ऐसे वाक्य प्रयोग के समय गो शब्द का क्या वाच्य होगा ? अज्ञात पदार्थ के विधि और निषेध का अधिकार नहीं होता है । यदि गो शब्द का अगोव्यावृत्ति अर्थ ग्रहण करेंगे तो इतरेतराश्रय दोष होगा। अगोव्यवच्छेद गो का निश्चय होने पर होता है। वह अगौ गोनिवृत्ति रूप है और गौ अगो व्यवच्छेद रूप है। 'अगौ', यहाँ गो यह उत्तर पद है, उसका अर्थ इसी दिशा से विचारना चाहिए । 'अगौ' ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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