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तृतीयः समुद्देशः
व्यवतिष्ठते, प्रतीतिविरोधात् । न हि गवादिशब्दश्रवणादगवादिव्यावृत्तिः प्रतीयते । ततः सास्नादिमत्यर्थे प्रवृत्तिदर्शनादगवादिबुद्धिजनकं तत्र शब्दान्तरं मृग्यम् । अकस्मादेव गोशब्दादर्थद्वयस्यापि सम्भावनान्नार्थ : शब्दान्तरेणेति चेन्नैवम्; एकस्य परस्परविरुद्धार्थं द्वयप्रतिपादनविरोधात् । किञ्च गोशब्दस्यागोव्यावृत्तिविषयत्वे प्रथममगौरिति प्रतीयेत । न चैवम्, अतो नान्यापोहः शब्दार्थः ।
किञ्च-अपोहाख्यं सामान्यं वाच्यत्वेन प्रतीयमानं पर्युदासरूपं प्रसज्यरूपं वा ? प्रथमपक्षे गोत्वमेव नामान्तरेणोक्तं स्यात्; अभावाभावस्य भावान्तरस्वभावेन व्यवस्थितत्वात् । कश्चायमश्वादिनिवृत्तिलक्षणो भावोऽभिधीयते ? न तावत्
मात्र ही है । अन्यापोह शब्दार्थ नहीं ठहरता है, क्योंकि प्रतीति से विरोध आता है । गवादि शब्द के श्रवण से अगवादि की व्यावृत्ति प्रतीत नहीं होती है । गो आदि शब्द के सुनने से सास्नादिमान् अर्थ में प्रवृत्ति देखे जाने से जो अगवादि बुद्धि का जनक है ऐसा अन्य शब्द ( गो शब्द से भिन्न शब्द ) वहाँ पर ( गवादि में ) ढूंढ़ना चाहिए । यदि कहो कि एक ही गो शब्द से ( विधि निषेध रूप ) दो अर्थ की सम्भावना होने से अतः अन्य शब्द से कोई प्रयोजन नहीं है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही शब्द के परस्पर विरोधी दो अर्थों का प्रतिपादन मानने में विरोध है । ( अर्थात् एकान्तवादियों के यहाँ एक ही शब्द का गवादि का अस्तित्व और अगवादि का निषेध रूप दो अर्थ मानने में विरोध है ) । दूसरी बात यह है कि गो शब्द ( गो शब्द का गोपिण्ड रूप भावार्थ यदि विषय न हो ) को जो गो नहीं है ऐसे अश्वादि व्यावृत्ति का विषय माने जाने पर आपके अभिप्राय के अनुसार पहले अगो की प्रतीति होना चाहिए | चूँकि ऐसा प्रतीत नहीं होता है, अतः अन्यापोह शब्द का अर्थ नहीं है ।
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दूसरी बात यह है कि वाच्य रूप से प्रतीयमान अपोह नामक सामान्य पर्युदास रूप है अथवा प्रसज्य रूप है ? ( नञ् दो प्रकार के कहे गए हैंपर्युदास और प्रसज्य । सदृश पदार्थ को ग्रहण करने वाला पर्युदास है और निषेध करने वाला प्रसज्य है । ) प्रथम पक्ष में गोत्व ही अन्य नाम से कही जाती है । ( अन्यापोह की शब्दार्थपने रूप से वाच्यता हो तो सिद्ध साध्यता होती है, क्योंकि जब गोनिवृत्ति लक्षण सामान्य गो शब्द से आपके द्वारा कहा जाता है तभी हम लोग गोत्व नामक भावलक्षण सामान्य को गो शब्द से वाच्य कहते हैं ), क्योंकि अभाव का अभाव भावान्तर स्वभाव से व्यवस्थित होता है अर्थात् अगो निवृत्ति लक्षण अभाव
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