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________________ १४८ प्रमेयरत्नमालायां द्वशाद् हि स्फुट शब्दादयः प्रागुक्ता वस्तुप्रतिपत्तिहेतव इति । उदाहरणमाह यथा मेर्वादयः सन्ति ॥९७॥ ननु य एव शब्दाः सत्यर्थे दृष्टास्त एवार्थाभावेऽपि दृश्यन्ते तत्कथमर्थाभिधायकत्वमिति ? तदप्ययुक्तम्; अनर्थ केभ्यः शब्देभ्योऽर्थवतामन्यत्वात् । न चान्यस्य व्यभिचारेऽन्यस्यासौ युक्तोऽप्रतिसङ्गात् । अन्यथा गोपालघटिकान्तर्गतस्य धूमस्य पावकस्य व्यभिचारे पर्वतादिधमस्यापि तत्प्रसङ्गात् । 'यत्नतः परीक्षितं कार्य कारणं नातिवर्तते' इत्यन्यत्रापि समानम् । सुपरीक्षितो हि शब्दोऽर्थं न व्यभिचरतीति । तथा चान्यापोहस्य शब्दार्थत्वकल्पनं प्रयासमात्रमेव । न चान्यापोहः शब्दार्थों भाव रूप शक्ति, उसके होने पर संकेत के वश से स्पष्ट रूप से पहले कहे गए शब्दादिक वस्तु का ज्ञान कराने में कारण होते हैं। (यहाँ आदि शब्द से अङ्गुलि का संकेत आदि गृहीत होते हैं )। उदाहरण कहते हैंसत्रार्थ-जैसे-मेरु आदि हैं ।। ९७ ॥ शङ्का-जो ही शब्द पदार्थ के होने पर उनके वाचक देखे जाते हैं, वे ही शब्द पदार्थ के अभाव में भी आकाश कमल आदि के वाचक देखे जाते. हैं तो वे अर्थ का कथन करने वाले कैसे माने जा सकते हैं ? ___ समाधान-यह कथन ठीक नहीं है। ( रामादि नहीं हैं, फिर भी उसके वाचक शब्द विद्यमान हैं, अतः शब्द अर्थ के वाचक कैसे हैं ? यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि उनसे उनका अस्तित्व सिद्ध नहीं किया जा रहा है, अपितु स्वरूप का प्रतिपादन किया जा रहा है, अतः दोष नहीं है।); क्योंकि अनर्थक शब्दों से सार्थक शब्द भिन्न हैं। अन्य के व्यभिचार में अन्य के व्यभिचार की परिकल्पना करना युक्त नहीं है, नहीं तो अतिप्रसङ्ग दोष लग जायेगा। यदि ऐसा होने लगे तो ऐन्द्रजालिक के घड़े के अन्तर्गत धुयें के होने पर भी अग्नि का अभाव होने से व्यभिचार होने से पर्वतादि के धुयें के व्यभिचार का प्रसङ्ग आ जायेगा। 'यत्न से परीक्षित कार्य कारण का उल्लंघन नहीं करता है, यह बात अन्यत्र भी ( शब्द में भी ) समान है। सुपरीक्षित शब्द अर्थ का व्यभिचारी नहीं होता है। तथा अन्यापोह के (अन्य के निषेध के) शब्दार्थपने की कल्पना प्रयास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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