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________________ “१२६ प्रमेयरत्नमालायां दृष्टान्तद्वारेण द्वितीयहेतुमुदाहरति. नास्त्यत्र गुहायां मृगकीडनं मृगारिसंशब्दनात् । कारण'विरुद्ध कार्य विरुद्धकार्योपलब्धौ यथा ॥ ८९ ॥ मृगक्रीडनस्य हि कारणं मृगस्तस्य विरोधी मृगानिस्तस्य कार्य तच्छब्दनमिति । इदं यथा विरुद्ध कार्योपलब्धावन्तर्भवति, तथा प्रकृतमपीत्यर्थः । बालव्युत्पत्थं पञ्चावयवप्रयोग इत्युक्तम् । व्युत्पन्नम्प्रति कथं प्रयोगनियम इति शङ्कायामाहव्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्याऽन्यथानुपपत्त्यैव वा ॥ ९० ॥ व्युत्पन्नस्य व्युत्पन्नाय वा प्रयोगः, क्रियत इति शेषः । तथोपपत्त्या तथा साध्ये -सत्येवोपपत्तिस्तयाऽन्यथानुपपत्त्यैव वाऽन्यथा साध्याभावेऽनुपपत्तिस्तया । · · तामेवानुमानमुद्रामुन्मुद्रयतिअग्निमानयं देशस्तथैव धूमवत्त्वोपपत्ते— मवत्त्वान्यथा नुपपत्तेर्वा ॥ ९१॥ दृष्टान्त के द्वारा द्वितीय हेतु का उदाहरण देते हैं सूत्रार्थ-इस गुफा में मृग की क्रीडा नहीं है, क्योंकि सिंह का शब्द हो रहा है । यह कारणविरुद्ध कार्य रूप हेतु है, इसका विरुद्धकार्योपलब्धि में अन्तर्भाव करना चाहिए ।। ८२ ॥ मृग की क्रीड़ा का कारण मृग है, उसका विरोधी सिंह है, उसका • कार्य उसकी गर्जना है। यह जैसे विरुद्ध कार्योपलब्धि के अन्तर्भूत होता है, उसी प्रकार कार्य रूप हेतु का अविरुद्ध कार्योपलब्धि में अन्तर्भाव होता है । बाल व्युत्पत्ति के लिए अनुमान के पाँचों अवयवों का प्रयोग किया जा सकता है, ऐसा आपने कहा है। व्युत्पन्न पुरुष के प्रति प्रयोग का क्या नियम है, इस प्रकार की शंका होने पर कहते हैं सत्रार्थ-व्युत्पन्न प्रयोग तथोपपत्ति अथवा अन्यथानुपपत्ति के द्वारा करना चाहिए ।। ९० ॥ ___ व्युत्पन्न का अथवा व्युत्पन्न के लिए प्रयोग करना चाहिए। सूत्र में 'क्रियत' पद शेष है। साध्य के होने पर हो साधन के होने को तथोपपत्ति कहते हैं और साध्य के अभाव में साधन के अभाव को अन्यथानुपपत्ति . कहते । उसके द्वारा व्युत्पन्न प्रयोग करना चाहिए। उसी अनुमानमुद्रा को प्रकट करते हैंसूत्रार्थ-यह प्रदेश अग्नि वाला है, क्योंकि तथैव अर्थात् अग्नि वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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