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________________ प्रमेयरत्नमालायां विरुद्धकार्याद्यनुपलब्धिविधौ सम्भवतीति विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिरिति । तत विरुद्धकार्यानुपलब्धिमाहयथास्मिन् प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति; निरामयचेष्टानु पलब्धः ॥ ८३ ॥ व्याधिविशेषस्य हि विरुद्धस्तदभावः, तस्य कार्य निरामयचेष्टा, तस्या अनुपलब्धिरिति । विरुद्धकारणानुपलब्धिमाह अस्त्यत्र देहिनि दुःखमिष्टसंयोगाभावात् ॥ ८४ ॥ दुःखविरोधि सुखम्, तस्य कारणमिष्टसंयोगस्तदनुपलब्धिरिति । विरुद्धस्वभावानुपलब्धिमाहअनेकान्तात्मकं वस्त्वकान्तस्वरूपानुपलब्धः ॥ ८५ ॥ अनेकान्तात्मकविरोधी नित्याद्यकान्तः, न पुनस्तद्विषयविज्ञानम्, तस्य मिथ्या तीन भेद हैं-(१) विरुद्ध कार्यानुपलब्धि (२) विरुद्ध कारणानुपलब्धि और (३) विरुद्ध स्वभावानुपलब्धि । विरुद्ध कार्यानुपलब्धि के विषय में कहते हैं. सूत्रार्थ-जैसे इस प्राणी में व्याधिविशेष है; क्योंकि निरामय चेष्टा की अनुपलब्धि है ।। ८३ ॥ ___ व्याधिविशेष के सद्भाव का विरोधी उसका अभाव है, उसका कार्य निरामय चेष्टा है, उसको यहाँ अनुपलब्धि है। विरुद्ध कारणानुपलब्धि के विषय में कहते हैं सूत्रार्य-इस प्राणी में दुःख है, क्योंकि इष्ट संयोग का अभाव है॥ ८४ ॥ दुःख का विरोधी सुख है, उसका कारण इष्ट संयोग है, उसकी अनुपलब्धि। विरुद्ध स्वभावानुपलब्धि के विषय में कहते हैं सूत्रार्थ-वस्तु अनेकान्तात्मक है; क्योंकि वस्तु का एकान्त स्वरूप पाया नहीं जाता है ।। ८५ ॥ .: अनेकान्तात्मक साध्य का विरोधी नित्यत्व आदि एकान्त है, न कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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