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तृतीयः समुद्देशः
१०९. साध्याभावे साधनस्याभाव एवेति सावधारणं द्रष्टव्यम् । क्रमप्राप्तमृपनयस्वरूपं निरूपयति
हेतोरुपसंहार उपनयः ॥४६॥ पक्षे इत्यध्याहारः । तेनायमर्थः-हेतोः पक्षधर्मतयोपसंहार उपनय इति । निगमनस्वरूपमुपदर्शयति
प्रतिज्ञायास्तु निगमनम् ॥४७॥ उपसंहार इति [अनु॰] वर्तते । प्रतिज्ञाया उपसंहारः साध्यधर्मविशिष्टत्वेन प्रदर्शनं निगमनमित्यर्थः । ननु शास्त्र दृष्टान्तादयो वक्तव्या एवेति नियमानभ्युपगमात्कथं तत्त्रयमिह सूरिभिः प्रपश्चितमिति न चोद्यम्; स्वयमनभ्युपगमेऽपि प्रतिपाद्यानुरोधेन जिनमतानुसारिभिः प्रयोगपरिपाट्याः प्रतिपन्नत्वात् । सा चाज्ञाततत्स्वरूपैः कर्तुं न शक्यत इति तत्स्वरूपमपि शास्त्रेऽभिघातव्यमेवेति । दृष्टान्त व्यतिरेक दृष्टान्त है। साध्य के अभाव में साधन का अभाव हो ही, इस प्रकार एवकार यहाँ जानना चाहिये।
क्रम प्राप्त उपनय के स्वरूप का निरूपण करते हैंसूत्रार्थ-हेतु के उपसंहार को उपनय कहते हैं ।। ४६ ॥
( साध्य के साथ अविनाभाव से विशिष्ट साध्यधर्मी जिसके द्वारा पुनः उच्चरित होता है, उसे उपनय कहते हैं ) ।
निगमन के स्वरूप को दिखलाते हैंसूत्रार्थ-प्रतिज्ञा के उपसंहार को निगमन कहते हैं ।। ४७ ।।
उपसंहार पद की अनुवृत्ति की गई है । प्रतिज्ञा का उपसंहार-साध्य धर्म विशिष्टत्व रूप से प्रदर्शन निगमन है । ___ सांख्यादि-शास्त्र में दृष्टान्त आदिक कहना ही चाहिये, ऐसा नियम नहीं स्वीकार करने पर भी कैसे दृष्टान्त, उपनय और निगमन को आचार्य ने विस्तारित किया है ? ___जैन-यह बात नहीं कहना चाहिये। स्वयं स्वीकार न करने पर भी शिष्य के अनुरोध से जिन मत का अनुसरण करने वालों ने प्रयोग की परिपाटी को स्वीकार किया है । वह प्रयोग परिपाटी अज्ञात स्वरूप वालों १. साध्याविनाभावित्वेन विशिष्टे साध्यमिणि उपनीयते पुनरुच्चार्यते हेतुर्येन
स उपनयः। २. प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाः साध्यलक्षणकार्थतया निगम्यन्ते सम्बद्धयन्ते येन
तन्निगमनमिति ।
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