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प्रमेयरत्नमालायां
तदुदाहरणं परं केवलमभिधीयमानं साध्यमिणि साध्यविशिष्टे धमिणि साध्यसाधने सन्देहयति सन्देहवती करोति । दृष्टान्तर्मिणि साध्यव्याप्तसाधनोपदर्शनेऽपि साध्यमिणि तन्निर्णयस्य कतु मशक्यत्वादिति शेषः । अमुमेवार्थ व्यतिरेकमुखेन समर्थयमानः प्राह
कुतोऽन्यथोपनयनिगमने ॥३९॥ अन्यथा संशयहेतुत्वाभावे कस्माद्धेतोरुपनयनिगमने प्रयुज्यते ।
अपरः प्राह-उपनयनिगमनयोरप्यनुकानाङ्गत्वमेव; तदप्रयोगे निरवकरसाध्यसंवित्तेरयोगादिति । तनिषेधार्थमाहन च ते तदंगे; साध्यमिणि हेतुसाध्ययोर्वचनादेवासंशयात् ॥४०॥
ते उपनयनिगमनेऽपि वक्ष्यमाणलक्षणे तस्यानुमानस्याङ्गे न भवतः; साध्यघर्मिणि हेतुसाध्ययोर्वचनादेवेत्येवकारेण दृष्टान्तादिकमन्तरेणेत्यर्थः । धर्म वाले धर्मी में साध्य के सिद्ध करने में सन्देह करा देता है ॥३८।।
वह उदाहरण पर केवल कहा गया साध्य धर्मी में-साध्यविशिष्ट धर्मी में साध्य के साधन करने में सन्देह यक्त कर देता है । दृष्टान्त धमी ( रसोईघर आदि में ) साध्य से व्याप्त साधन के दिखलाने पर भो साध्यधर्मी ( पर्वतादिक ) में साध्य व्याप्त साधन का निर्णय करना सम्भव नहीं है।
इसी अर्थ को व्यतिरेक मुख से समर्थन करते हुए कहते हैं
सत्रार्थ-अन्यथा उपनय और निगमन का प्रयोग क्यों किया जाता ॥ ३९॥
उदाहरण यदि साध्यविशिष्ट धर्मी में साध्य का साधन करने में सन्देह युक्त न करता तो किस कारण उपनय और निगमन का प्रयोग किया जाता।
योग-उपनय और निगमन भी अनुमान के अंग हैं, उनका प्रयोग न करने पर असंदिग्ध रूप से साध्य का ज्ञान नहीं हो सकता है।
उक्त कथन का निषेध करने के लिए कहते हैं
सूत्रार्थ-उपनय और निगमन अनुमान के अंग नहीं हैं, क्योंकि हेतु और साध्य के बोलने से हो संशय नहीं रहता है ।। ४० ।।
जिनका लक्षण आगे कहा जा रहा है, वे उपनय और निगमन भी अनुमान के अंग नहीं हैं; क्योंकि साध्यधर्मी में हेतु और साध्य के वचन से ही सन्देह नहीं रहता है । 'एव' पद से दृष्टान्तादिक के बिना-यह अर्थ ग्रहण करना चाहिए । ( दृष्टान्तादिक में आदि पद से उपनय और निगमन, का ग्रहण होता है)।
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