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प्रमेयरत्नमालायां एतेनाचेतनोपादानत्वादिकमपि समर्थितमिति सूक्तं बुद्धिमद्धेतुकत्वम्, ततश्च सर्ववेदित्वमिति ।
तदेतत्सर्वमनुमानमुद्राद्रविणदरिद्रवचनमेव, कार्यत्वादेरसम्यग्घेतुत्वेन तज्जनित. ज्ञानस्य मिथ्यारूपत्वात् । तथाहि-कार्यत्वं स्वकारणसत्तासमवायः स्यात्, अभूत्वाभावित्वम्, अक्रियादर्शिनोऽपि कृतबुद्धयुत्पादकत्वम्, कारणव्यापारानुविधायित्वं वा स्यात्, गत्यन्तराभावात् ।
अथाद्यः पक्षस्तदा योगिनामशेषकर्मक्षये पक्षान्तःपातिनि हेतोः कार्यत्वलक्षण. स्याप्रवृत्त गासिद्धत्वम् । न च तत्र सत्तासमवायः स्वकारणसमवायो वा समस्ति; तत्प्रक्षयस्य प्रध्वंसरूपत्वेन सत्तासमवाययोरभावात्, सत्ताया द्र व्यगुणक्रियाऽऽधार
से व्यभिचार आता है। इस प्रकार कार्यत्व हेतु के समर्थन से अचेतनोपादानत्व आदि का समर्थन होता है। इस प्रकार बुद्धिमनिमित्तत्व और उससे सर्वज्ञपना ठीक ही कहा है। __ जैन-यह सब कथन अनुमान मुद्रा रूप धन से रहित दरिद्र पुरुष के वचन के समान है, क्योंकि कार्यत्व आदि असम्यक हेतु हैं, अतः उनसे जनित ज्ञान भी मिथ्या रूप ही है। वह इस प्रकार है-(चार विकल्प कर पूछते हैं ) ? स्वकारण ( निष्पाद्य वस्तु का कारण ) सत्ता समवाय ( सत्ता से मिलन) को कार्यत्व कहते हैं या अभूत्वाभावित्व को या अक्रियादर्शी के कृतबुद्ध्युत्पादकत्व (किसी के करने को बुद्धि उत्पन्न होना ) को अथवा ( परमाण्वादि ) कारण व्यापारानुविधायित्व ( व्यापार के अनुसार कार्य होना ) को कार्यत्व कहते हैं ? क्योंकि इनसे भिन्न अन्य गति का अभाव है।
यदि आपको आद्य पक्ष स्वीकार है तो 'योगियों के समस्त कर्मों का क्षय' के पक्ष के अन्तर्गत आ जाने पर हेतू कार्यत्व लक्षण के प्रवृत्त न होने पर भागासिद्ध नामक दोष आता है। अर्थात् तनु करणभुवनादि पक्ष के अन्तर्वर्ती होने पर योगियों के समस्त कर्मों के प्रध्वंसाभावरूपता के कारण स्वकारण सत्ता समवाय लक्षण कार्य रूप हेतु की प्रवृत्ति युक्त नहीं है। पक्ष के अन्तर्गत आने वाले पर्वतादि में स्वकारण सत्ता समवाय के प्रवृत्त होने पर और समस्त कर्मों के क्षय के प्रवृत्त न होने पर स्वकारण सत्ता समवाय लक्षण हेतु पक्ष के एकदेश में असिद्ध है। कर्मक्षय कार्य में न तो सत्ता समवाय है और न स्वकारण समवाय है। योगियों १. अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहेदंप्रत्ययलिङ्गो यः सम्बन्ध : स समवायः ।
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