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પ્રસ્તાવના
रचना जिनभद्रगणिके पूर्वकी और नन्दीसूत्ररचनाके बादकी है ।
दशवैकालिकचूर्णी (वृद्धविवरण) में और व्यवहारचूर्णीमें श्रीजिनभद्रगणिकी कोई कृतिका उद्धरण नहीं है, अतः ये चूर्णीयाँ भी जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के पूर्वकी होनी चाहिए ।
जम्बूद्वीपकरणचूर्णी, यह जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिकी चूर्णी मानी जाती है, किन्तु वास्तव में यह जम्बूद्वीप परिधि - जीवा - धनुःपृष्ठ आदि आठ प्रकारके गणितको स्पष्ट करनेवाले किसी प्रकरणकी चूर्णी है। वर्त्तमान इस चूर्णीमें मूल प्रकरणकी गाथाओंके प्रतिक मात्र चूर्णिकारने दिये हैं, अतः कुछ गाथाओं का पता जिनभद्रीय बृहत्क्षेत्रसमा प्रकरण से लगा है, किन्तु कितनीक गाथाओं का पता नहीं चला है। इस चूर्णीमें जिनभद्रीय बृहत्क्षेत्रसमासकी गाथायें भी उद्धृत नजर आती हैं, अत: यह चूर्णी उनके बादकी है।
यहां पर चूर्णियोके विविध उल्लेखों को लक्ष्यमें रख कर चूर्णिकारोके विषयमें जो कुछ निवेदन करनेका था, वह करनेके बाद अंतमें यह लिखना प्राप्त है कि- - प्रकाश्यमान इस नन्दीसूत्रचूर्णीके प्रणेता श्रीजिनदासगणि महत्तर हैं, जिसका रचनासमय स्पष्टतया प्राप्त नहीं है, फिर भी आज नन्दीसूत्रचूर्णीकी जो प्रतियाँ प्राप्त हैं उनके अन्तमें संवतका उल्लेख नजर आता है, जो चूर्णीरचनाका संवत् होनेकी संभावना अधिक है। यह उल्लेख इस प्रकार है
शकराज्ञः पञ्चसु वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनवतेषु नन्द्यध्ययनचूर्णी समाप्ता इति ।
अर्थात् शाके ५९८ (वि.सं. ७३३) वर्षमें नन्द्यध्ययनचूर्णी समाप्त हुई । इस उल्लेखको कितनेक विद्वान् प्रतिका लेखनसमय मानते हैं, किन्तु यह उल्लेख नन्द्यध्ययनचूर्णिकी समाप्तिका अर्थात् रचनासमाप्तिका ही निर्देश करता है, लेखनकालका नहीं। अगर लेखनकाल होता तो समाप्ता ऐसा न लिख कर लिखिता ऐसा ही लिखा होता । इस प्रकार गद्यसन्दर्भ में रचनासंवत् लिखनेकी प्रथा प्राचीन युगमें थी ही, जिसका उदाहरण आचार्य श्रीशीलाङ्ककी आचाराङ्गवृत्ति प्राप्त है । " नंदीसुत्तं, संपादक-मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज, प्रकाशक प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद, (सिरीझ नं. १ ), १९६६ ( प्रस्तावना, पृष्ठ ५ - १२)
અનુયોગદ્દાર ચૂર્ણિ - ચૂર્ણિના સંશોધનમાં અમે ૭ તાડપત્ર લિખિત પ્રાચીન પ્રતિઓનો ઉપયોગ કર્યો છે, તેમાં અે ૨ બીજા કરતાં વિશિષ્ટતા ધરાવે છે. આ.પ્ર.મુ.શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે એક સ્થળે પોતે नसच्युं छेडे - “जडाजरतरगच्छ भंडारनी पोथी” २४.।।।४२।” स्थितिसरस, बिपि सरस, ताडपत्र પણ સરસ, પત્ર ૨૨૪ થી ૨૭૫. અનુમાન તેરમા સૈકાનું પ્રથમ ચરણ. અનુયોગદ્દાર ચૂર્ણિ. બડા ખરતરગચ્છ ભંડારની પોથી લગભગ શુદ્ધ જેવી. જે પાઠો કોઇમાંથી નથી મળી શક્યા તેવા સંખ્યાબંધ પાઠો આમાંથી મળી આવ્યા છે. પ્રતિમાં પેજ અસ્તવ્યસ્ત નથી. પ્રતિની નકલ પ્રાચીનતમ પ્રતિ ઉપરથી થઇલાગે છે. વચમાં જગા ખાલી છે, યા તો લેખક લિપિ ન વાંચી શક્યો હોય યા ઉપરની પોથી જીર્ણ હોય.''
અમે પણ અનુયોગદ્વારચૂર્ણિના સંશોધનમાં આ પ્રતિનો ખાસ આધાર રાખ્યો છે. પુણ્યવિજયજી મહારાજે નંદીચૂર્ણિની હીદી પ્રસ્તાવનામાં એક સ્થળે લખ્યું છે કે :
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अनेक आगमोंकी चूर्णि, वृत्ति आदिके अवलोकनसे प्रतीत हुआ है कि अगर प्राचीन एवं अलगअलग कुलकी प्रतियाँ प्राप्त न हो तो मुद्रणादि में प्राय: सैंकडो अशुद्धियाँ पाठपरावृत्तियाँ आदि रहनेका सम्भव रहता है, इतना ही नहीं सन्दर्भके सन्दर्भ छूट जाते हैं । विद्वान् संशोधकोंके ध्यानमें लाने के लिये मैं यहां एक बातको उद्धृत करता हूं -
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