________________
पश्चमं परिशिष्टम् रख सकते हैं - जैसे अहियरं या अहियतरं ये दोनों रूप चल सकते हैं ।
आदिमें 'न' रखा जाय यदि मूल संस्कृतमें 'न' आदिमें हो । जैसे नमो रखा जाय उसका णमो न किया जाय । किन्तु न आदिमें हो ऐसे शब्द यदि समासके बीचमें आ जाय तो विकल्पसे जैसा भी न या ण मिलता हो रखा जाय । ज्ञ का प्राकृतमें पण ही रखा जाय । संसकृत व्याकरणके नियमानुसार जहां न का ण होता हो वहां ण रखा जाय । द्वन्द्व समासमें - हाइफन दो शब्दों के बीच रखा जाय । जहां संधिसे दीर्घस्वर हुवा हो वहां बीचमें - हाइफन देना आवश्यक नहीं । एकार, ओकार के बाद जहीं अकारका लोप हुआ हो वहीं अवग्रहका चिह्न दिया जाय अन्यत्र
नहीं। (८) प्राकृतव्याकरणसे अनेक वैकल्पिकरूप मिलते हैं । उन वैकल्पिकरूपों में से मूलमें एकरूपको पसंद
करके अन्य उपलब्ध रूपोंका निर्देश प्रस्तावनामें कर देना । जैसे करइ करेइ इत्यादि रूपों में से किसी एक को पसंद करना शेषका निर्देश प्रस्तावनामें हो जाना चाहिए । विभक्तिके प्रत्ययके भेदसे जो पाठांतर होते हैं उनकी नोंध प्रस्तावनामें लेना किन्तु सर्वत्र पाठांतर
देना आवश्यक नहीं। (१०) संयुक्त ण्ण, म्म जो संस्कृतसे निष्पन्न हैं उन्हें कायम रखना चाहिए। उनके स्थानमें पूर्वमें अनुस्वार
करके उनका.द्विर्भाव मिटाना नहीं चाहिए । जैसे सं. वर्ण = प्राकृत वण्ण को कायम रखना उसके
स्थानमें वंण नहीं करना । धर्म धम्म किन्तु धंम नहीं। (११) परसवर्ण न करके अनुस्वार का प्रयोग करना । जैसे पञ्च-पंच, सञ्जय-संजय । (१२) आर्ष प्रयोग कह कर जिनकी टीका की गई हो वैसे आर्षपाठ मूलमें लेना । अन्य व्याकरणको
अमान्य ऐसे पाठोंकी नोंध प्रतिके वर्णनमें देना किन्तु मूलमें वैसे पाठ नहीं रखना । (१३) लिपिदोषके कारण होनेवाले पाठांतरों की केवल नोंध प्रस्तावनामें लेना सर्वत्र वैसे पाठांतर देनेकी
आवश्यकता नहीं । (१४) जाव कह कर जिस पाठकी सूचना हो उसकी पूर्तिकी सूचना स्थानका निर्देश करके दे देना । संक्षिप्त
हो तो नीचे दिया भी जा सकता है । अंकों द्वारा सूचितकी भी यही व्यवस्था है । (१५) उववाई के वर्णकों का निर्देशमात्र उववाईका सूत्रांक देकर कर देना । (१६) प्रतोके संकेत जहीं तक हो सके एकाक्षरमें ही करना । (१७) संकेतों में जहीं एकाधिक अक्षर देने आवश्यक हो वहीं उन्हें एक साथ ही रखना अक्षरोके बीचमें
० या ऐसा कोई चिह्न नहीं देना । जैसे आवश्यककी हारिभद्रवृत्तिका संकेत देना हो तो आहा
या आहावृ दिया जा सकता है किन्तु आ०हा०वृ० ऐसा नहीं ।। (१८) जहा नंदीए या जहा पण्णवणाए - इत्यादिमें तत्तत् ग्रन्थोके सूत्रांकका निर्देश दिया जाय । पाठ
देनेकी आवश्यकता नहीं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org