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[ पुरुषार्थसिद्धथपाय
होने दिया । सम्भव है कि उसके उपदेशकालमें अनेक ऐसे भी पुरुष बैठे हों जो संसारसे उदास हो रहे हैं और मोक्षकी वांछा रखकर धर्म सुनने के पिपासु बने हुये हैं । ऐसे पुरुषोंको मोक्षका साक्षात् साधक मुनिधर्मका उपदेश मिलना चाहिये, परन्तु मिला श्रावकधर्मका । ऐसी अवस्थामें व वहीं रह गये, आगे उन्नतिपथमें नहीं बढ़ सके, यह बड़ीभारी हानि उन आत्माओंकी उस उपदेष्टा द्वारा पहुंचायी गई । भले ही उसकी अजानकारीसे ऐसा क्रमविरुद्ध उपदेश दिया गया हो परन्तु उसके निमित्तसे उनका पूर्ण सुधार तो रुक ही गया। इसीलिये ऐसे क्रमभंग उपदेश देनेवालेको आत्माओं का ठगनेवाला कहा गया है।
जिसप्रकार आदेश देना केवल आचार्योंका कार्य है, मुनिराज भी आदेश देनेके अधिकारी नहीं हैं, वे केवल उपदेश दे सकते हैं, उसीप्रकार उपदेश देनेका भी वही अधिकारी हो सकता है जो शास्त्रोंके रहस्यका वेत्ता हो, आगमानुकूल प्रतिपादन करनेवाला हो, निष्कषाय हो, निष्पृह हो, जीवोंके सच्चे हितकी भावना रखता हो, स्वयं आगमके अनुकूल पथपर आरूढ़ हो और श्रद्धा एवं चारित्रमें आदर्श हो । जो उपर्युक्त बातोंसे रहित है, वह उपदेश देनेका कभी अधिकारी नहीं हो सकता । आगमसे किंचिन्मात्र भी जो विरुद्ध भाषण करता है, उसका उपदेश सुनना केवल पापवन्धका कारण है। इसलिये सदुपदेष्टाओंको पहचान करके ही उनका उपदेश सुनना चाहिये । इस कलिकालमें ऐसे उपदेष्टा अनेक मिलते हैं, जो स्वयं धर्मपथसे दूर हैं, आगमके वाक्योंकी परवा न कर अपने स्वतन्त्र विचारोंको सुनाते फिरते हैं । ऐसे पुरुषोंके धर्मविरुद्ध भाषणोंसे हितके बदले अहित ही होता है ॥ १६ ॥
___उपदेश ग्रहण करनेवाले पात्रका कर्तव्य एवं सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मको नित्यं । तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्ति ॥२०॥
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