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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ ७६ रक्षा होनेवाली है। उपयुक्त कथनका यही सारांश है कि आचार्यों की दृष्टि जीवोंकी संसारपंकसे निकालनेकी है, इसलिये वे किसी पुरुषको संसारसे उदास देखकर तत्काल दीक्षा देकर उसको मुनिपदमें आरूढ़ बना देते हैं । उनका लक्ष्य सदा आदर्श मार्गपर रहता है। श्रावकधर्म पापात्रव-सहित है, आरंभ परिग्रहसहित है; इसलिये उससे आत्माका पूर्ण कल्याण नहीं हो सकता, चरम उन्नति नहीं हो सकती । चरम उन्नतिका मार्ग मुनिधर्म ही है। इसलिये आचार्य एवं मुनि संसारी आत्माओंके उसी मार्गका उपदेश देते हैं । यदि यह प्रश्न किया जाय कि 'सच्चासुख कहांपर है ?' तो उत्तर मिलेगा-मोक्षमें । 'मोक्षकी प्राप्ति किससे होती है ?' उत्तर मिलेगा-रत्नत्रयकी पूर्णतासे । इसलिये इन प्रश्नोत्तरोंसे यह बात भलीभांति सिद्ध होती है कि पहले ऊंचा एवं अंतिम ध्येय ही सामने रक्खा जाता है। नीचा लक्ष्य पहले कभी निरूपणतामें नहीं आता । ऐसा नहीं कहा जाता कि सच्चा सुख एकदेश संसारमें है, अथवा चौथे गुणस्थानमें है; और न यही कहा जाता है कि मोक्षकी प्राप्तिका उपाय चौथा गुणस्थान या पांचवां गुणस्थान है अथवा सम्यग्दर्शनमात्र है, किंतु रत्नत्रयकी प्राप्ति ही मोक्षप्राप्तिका उपाय (मार्ग) कहा जाता है। फिर भले ही मोक्ष एवं उसका उपाय रत्नत्रय क्रमसे प्राप्त किया जाय, परंतु उपदेशमें पूर्ण सुख और पूर्ण उपायका ही पहले विवेचन होता है । यही लोकप्रसिद्ध एवं शास्त्रप्रसिद्ध पद्धति है । इस आगमानुकूल पद्धतिसे विपरीत पद्धति. द्वारा जो उपदेश देता है, वह दण्डस्थानीय अर्थात् दन्ड देनेयोग्य बतलाया गया है। शंका हो सकती है कि ऐसा उस उपदेष्टाने क्या अपराध किया है जो दंडपात्र बतलाया गया है ?'इसका उत्तर यह है कि उसने वैसा उपदेश देकर अनेक आत्माओंको ठग लिया, एवं उन आत्माओंका हित नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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