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________________ पुरुषार्थसिद्धयुपाय ] । ७७ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm आचार्यों ने उपदेशपात्रोंके अनेक सूक्ष्मभेद बतलाये हैं, साथ ही परिणामोंका तरतमरूप कोटियोंको भी अत्यंत सूक्ष्मतासे बतलाया है । पात्र अपात्रका ही ध्यान रखकर उन्होंने देशना उपदेशका मार्ग बतलाया है। यदि कहा जाय कि आचार्यों ने जीवोंकी सामर्थ्यका विचार नहीं करके ऊंची श्रेणीके उपदेशका विधान किया है, तो यह कहना अयुक्त है, क्योंकि उन्होंने सामर्थ्यका सीमातीत विचार किया है, इसीलिये उन्होंने गाढ़ मिथ्यादृष्टियोंको उपदेशका एकदम अपात्र ही बतला दिया है। यदि उनका लक्ष्य ऊंचा उपदेश देना ही होता, तो वे गाढमिथ्यात्वियोंको उपदेशका अपात्र क्यों कहते ? इससे सिद्ध होता है कि उन्होंने पात्र अपात्रका पूर्ण विचार किया है । फिर भी उपदेश देनेका क्रम यही रक्खा है कि पहले उच्चश्रेणीका उपदेश दिया जाय, पीछे जघन्यश्रेणीका दिया जाय । जब कि जैनसिद्धांतने अनादि-मिथ्यादृष्टिके सुधारके लिए उपदेश देना नियमसे कारण बतलाया है, तो उसमें जो उपदेशक्रमका विधान किया है वह भी नितांत आवश्यक है । जैसे बिना उपदेशके अनादि-मिथ्यादृष्टि कभी सुधर नहीं सकते, वैसे उपदेशकमविधानसे विपरीत क्रम रखनेसे भी जीवोंके सुधारमें बड़ी भारी हानि होती है । इसीलिये आर्षग्रंथोंमें विरुद्धक्रमसे कहनेवाले उपदेष्टाओंको, चाहे वे किसी पदस्थवाले क्यों न हों, प्रायश्चित लेनेका-दंडग्रहण करनेका पात्र कहा गया क्रमरहित उपदेशसे क्या हानि होती है ? अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोतिदूरमपि शिष्यः। अपदेपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना॥ १६ ॥ ___ अन्वयार्थ-( यतः । जिस कारणसे ( तेन ) उस ( दुर्मतिना ) दुर्बुद्धि के ( अक्रमकथनेन ) कमविरुद्ध उपदेश देनेसे ( अतिदूरं ) अत्यंत अधिक (प्रोत्सहमानः अपि ) बढ़े हुए उत्साहाला भी ( शिष्यः ) शिष्य-उपदेशका पात्र ( अपदेअपि ) जघन्यश्रेणीमें ही (संप्रतृप्तः ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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