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[ पुरुषार्थसिद्धयुपाय
धर्मका उपदेश होता है । वह दंडविधानका पात्र क्यों है ? इसलिये है कि उसने आगमके विरुद्ध भाषण किया ।
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जैनागममें अन्य समस्त द्रव्योंका भी निरूपण है, परन्तु आत्माका निरूपण प्रधानता एवं विशेषतासे किया गया है । उसका कारण भी यह बतलाया है कि जीवके लिये पुरुषार्थसिद्धि - मोक्षको छोड़कर अन्य समस्त द्रव्य हेय हैं, इसलिये जीवकी सुधारणा के लिये ही अनेक प्रकारके उपाय जैनशास्त्रकारोंने प्रगट किये हैं । सबसे प्रथम तो उन्होंने अनादि मिथ्यादृष्टि के लिए देशनालब्धि नियमसे बतलाई है, अर्थात् बिना किसी साधु महात्मा अथवा सम्यग्दृष्टि के उपदेशके उस आत्माका मिथ्यात्व कभी छूट नहीं सकता । फिर उन्होंने मिथ्यादृष्टियों के भी अनेक भेद बतलाए हैं । कोई तीव्र मिथ्यात्व हैं, उन्हें उपदेशका अपात्र ही बतलाया है; गाढ़ मिथ्यादृष्टियोंको जितना भी उपदेश मिलेगा, वह सब समुद्र में बरसे हुए जलके समान व्यर्थ ही जायगा । कुछ ऐसे मिथ्यादृष्टि बतलाये हैं जो अगृहीत मिथ्यात्वी हैं। कुछ गृहीत बतलाये हैं । जिन्होंने जन्मजन्मांतर से मिथ्यात्व धारण कर रक्खा है अर्थात् जो बिना किसीके उपदेशके जन्मांतरसे ही मिथ्यात्वमय संस्कारोंको लेकर आते हैं, वे अगृहीत मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं और जो किसीके उपदेश से मिथ्यात्वको ग्रहण करते हैं, वे गृहीत मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं । उनमें भी कोई भद्र हैं, कोई अभद्र हैं । भद्र उन्हें कहते हैं जो अपने मतका - मिथ्यामतका तो सेवन करते हैं । परंतु जैनधर्म से विद्वेष नहीं करते किंतु उसमें रुचि रखते हैं; ऐसे जीवोंको सदुपपदेश बहुत जल्दी सुधार देता है । कुछ उनसे भी ऊपर भद्रता रखते हैं जोकि मिथ्यामतमें रहते हुए भी उस मतसे उपेक्षित - उदासीन हो चुके हैं और जिनधर्ममें विशेष रुचि रखते हैं । ऐसे पुरुषोंके लिये उपदेशका निमित्त मिलना अमोघशक्तिका काम करता है । अभद्र पुरुषोंको उपदेश पहले तो प्रभावक ही नहीं होता, होता भी है तो अत्यंत विलंब से । इसप्रकार
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