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[पुरुषार्थसिद्धय पाय
आदि मद करनेवाले पदार्थों का सेवन करनेसे पुरुष मूर्छित हो जाता है। यदि जड़में आत्मा पर असर डालनेकी शक्ति न होती, तो मद-कारक पदार्थों से ज्ञान मूर्छित क्यों हो जाता ? इसीप्रकार-बादाम, पिस्ता, घी, दूध, मलाई, फल आदि बलकारक एवं पौष्टिक पदार्थों के सेवन करनेसे आत्माका ज्ञानगण विकसित होता है, बासा पकवान दहीके साथ खानेसे बुद्धि मंद होती है। इन सब बातोंसे यह प्रत्यक्ष-सिद्ध है कि जड़का आत्मापर गहरा प्रभाव पड़ता है । यह तो वाह्य जड़ पदार्थों के संबंधका दृष्टांत है । जो सूक्ष्म कर्मपरमाणु आत्माके साथ एकक्षेत्रावगाही हो रहे हैं अर्थात् नीरक्षीरके समान जड़ और चेतनके प्रदेश एकम-एक हो रहे हैं, उन परमाणुओं द्वारा आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुणोंका घात होता है । जो आत्मीय गुणोंका घात करनेवाले स्पर्धक हैं, उन्हें 'घातिया-कर्म' कहते हैं । इन घातिया-कर्मों में भी चारप्रकारसे घात करनेकी भिन्न भिन्न शक्रियां हैं । कुछ कर्मपुज ऐसा है, जो शैल (पर्वत) के समान कठोर है. वह अपने प्रतिपक्षी गणको सम्पूर्णतासे घात करता है; ऐसे कर्मपुंजको 'सर्वघाति-स्पर्धक' कहते हैं । कुछ कर्मपुज ऐसा है जो ऊपर कहे हुए कर्मपुजसे कम दर्जेकी घातशकि रखता है, उसे अस्थिके समान कहा गया है । यह भाग भी सर्व-घाति हैआत्माके गुणका सर्वघात करता है । तीसरा कर्मपुज ऐसा है जो काष्ठके समान कठोरता लिएहुए है । काष्ठ यद्यपि शैल और अस्थिसे कम कड़ा है, मोड़नेसे मुड़ भी जाता है, इसलिए यह सर्वघाती होनेपर भी पहले दो भागोंसे हलका है । इसी तीसरे भागके बहुभाग परमाणु सर्वघाति हैं, एकभाग देशघाती है; अर्थात् दारू ( काष्ठविशेष) के समान कर्म-परमाणुओंके अनंतवें भाग ऐसे भी परमाणु हैं जो आत्माके गुणोंका एकदेश घात करते हैं, वे उनका सर्वघात नहीं करते। चौथा कर्मपुंज ऐसा है जो लताके समान कोमल है । जैसे लता अति कोमल होती है, उसीप्रकार जो कर्म उसीके समान कोमल रसशनि लियेहुए हैं, उनसे आत्माके गुणोंका एक
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