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________________ [ पुरुषार्थसिद्ध पाय पत्थर में लोहेको खींचने की शक्ति है और किसी धातुके खींचने की शक्रि उसमें नहीं है, उसीप्रकार लोहे में चुम्बक द्वारा खींचेजानेकी शक्ति है । इसलिए कार्माण तथा नोकर्माणवर्गणाओं में जो आत्मामें बंधने की योग्यता है, उसे ही 'द्रव्यबन्ध' कहते हैं । आत्माके जिन रागद्वेषादि परिणामों की निमित्ततासे वे वर्गरणाएं आत्मासे सम्बन्ध पाकर कर्म - पर्याय एवं नोकर्म पर्याय धारण करती हैं, उन परिणामोंको 'भावकर्म' कहते हैं। उन्हींका दूसरा नाम चेतनकर्म है । भावकर्मके निमित्तसे ही कर्मपर्यायमें फलदानशक्रिका पाक होता है। जिससमय कर्म बंधते हैं, उसीसमयसे लेकर उनमें पाक होना प्रारम्भ हो जाता है; फिर 'आवाधाकालको छोड़कर वे कर्म उदय में आने लगते हैं । ५८ ] उन्हीं उदयमें आयेहुए कर्मों के निमित्तसे भावकर्म ( रागद्वेषरूप आत्माका वैभाविकभाव ) उत्पन्न होता है; पुनः उस भावकर्मके निमित्तसे नवीन कर्मों का बंध होता है एवं उननवीन बंधे हुए कर्मो के उदयसे नवीन भावकर्मकी उत्पत्ति होती है। यही भावकर्म और द्रव्यकर्म की श्रृंखला संसारी जीव में तबतक बराबर लगी रहती है, जबतक कि जीवके कर्मों का उदय मंद होता होता निःशेष नहीं हो जाता एवं भावकर्मों का अभाव नहीं हो जाता । भावकर्मके निमित्तसे द्रव्यकर्म का जो आत्माके साथ एकमएक होना है, अर्थात् आत्माके प्रदेश एवं कर्मप्रदेश इन दोनोंका जो एकक्षेत्रावगाही " १. जितने समय तक कर्म उदयमें नहीं आता है, उतने कालको आवाधीकाल कहते हैं । हर-एक कर्म बंधने पर उसके पाकके लिए कुछ आवाधाकाल ( व्यवधान समय ) अवश्य लगता है। जिस कर्मकी स्थिति एक सागर - प्रमाण होती है, उस कर्मकी आवाधा १ वर्षकी पड़ती | सबसे जघन्य स्थितिवाले कर्मों का आवाधाका समय एक अवलावलि प्रमाण है । अर्थात् आत्मासे कोई भी कर्म क्यों न संबंध करे, एक अचलावलिसे पहले तो वह उदयमें आ ही नहीं सकता । इसप्रकारकी आवाधा वहींपर पड़ती है, जहां कि कषायभावोंसे आत्मा कर्मबन्ध करता है। जहां कषायभाव नहीं है, केवल योगोंते कर्म आते हैं, वहां कर्म आते हैं, वहां कर्म आत्मामें ठहरते नहीं है - इधरसे आते हैं, उधरसे निकलते जाते हैं, केवल आत्माको स्पर्शमात्र करते जाते हैं । वहांपर आवाधा नहीं है। जहां कर्मों का पाक होता है, वहीं अवाधाकालकी आवश्यकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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