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[पुरुषार्थसिद्धय पाय
अतीव मंद होता है। पानी को पाकर वनस्पति हरी हो जाती है, बिना पानी के वह सूख जाती है, पानी देते हुए रक्षा करने से वह बढ़ती है; यह वनस्पति का बढ़ना, हरा होना, बिना पानी के मुरझाना आदि कार्य देखने से सिद्ध होता है कि उसमें जीव है । यदि वनस्पति में जीव नहीं होते तो वह चौकी, किवाड़, खम्मा, दीवार, सोना, चांदी, थाली, मकान, पुस्तक, कपड़ा आदि पदार्थों के समान पानी देने पर एक सी रहती; न तो घटती, न बढ़ती । जैसे चौकी आदि पदार्थ पानी देने पर ज्यों के त्यों रहते हैं। तैसे वह भी रहती । परन्तु चौकी, किवाड़, खम्भा आदिमें जीव नहीं है, वनस्पतिमें जीव है, तथा मनुष्योंके समान वृद्धि और मुरझाना आदि होता है इतना विशेष है कि उन जीवों पर कर्मों का यहांतक प्रभाव पड़ा हुआ है कि वे केवल शरीर और एक स्पर्शनइन्द्रिय पा सके हैं, इसीलिये इतने मंदज्ञानी हैं कि उन्हें 'अपने' तकका बोध नहीं है। उन्हीं वनस्पतिमें रहनेवाले जीवोंके समान पहाड़ोंमें, अग्निमें, हवामें जीव पाये जाते हैं। पहाड़ों में रहने वाले जीव पृथ्वीकायके कहलाते हैं, कारण पृथ्वी ही उनका शरीर है। जिन पहाड़ मिट्टी आदिमें जीव रहते हैं, वे पहाड़ मिट्टी आदि पदार्थ बढ़ते हैं। पहाड़ों का बढ़ना वहाँ रहने वालों को मालूम होता है-जो पहाड़ के स्कंध वा टेकरियां कुछ वर्ष पहले छोटी छोटी रहती हैं, वे ही कुछ वर्ष पीछे बढ़कर बहुत विशाल बन जाती हैं । जिस पाषाण में जीव नहीं होता, वह कभी बढ़ नहीं सकता; जैसे घरों में रहने वाले पत्थर के खम्भे, सिललोढा, चाकी, पत्थर के बांट, पत्थर की मूर्ति आदि वस्तुयें नहीं बढ़ सकतीं; कारण उनमें जीव नहीं है।
मिट्टी पाषाण अदि में जो जीव रहते हैं, वे भी वनस्पति के समान केवल एक स्पर्शन - इन्द्रिय वाले हैं । इसी प्रकार जल अग्नि वायु में भी जीव रहते हैं, वे भी ऊपर कहे हुए जीवों के समान एकेन्द्रिय हैं। जल में जो जीव आंखोंसे प्रत्यक्ष
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