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पुरुषार्थसिद्ध पाय ]
[ ४३५ ananananananananananananananananananann mannananananananananananana जैनसिद्धांतमें दो अपेक्षाएँ मूलभूत हैं जिनसे कि वस्तुको यथार्थ बोध किया जाता है । एक द्रव्याथिकनय, दूसरी पर्यायार्थिकनय । पहली नय द्रव्यको विषय करती है. पर्यायको गौणदृष्टिसे देखती है। दूसरी पर्यायको मुख्यतासे विषय करती है, द्रव्यको गौणदृष्टिसे देखती है। जिस समय पदार्थका विवेचन द्रव्यार्थिकनयसे किया जाता है उस समय नित्यताकी प्रधानता रहती है, अनित्यताकी गौणता रहती है। जिस समय पर्यायार्थिकनयसे विवेचन किया जाता है उस समय अनित्यताकी मुख्यता हो जाती है, नित्यताकी गौणता हो जाती है। वस्तु द्रव्यपर्याय स्वरूप है । इसका संक्षिप्त स्वरूप यह है कि प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण कोई न कोई परिणाम धारण करती रहती हैं ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसका प्रतिक्षण परिणाम न हो और ऐसा कोई समय नहीं जिसमें प्रतिक्षण वस्तुमें परिणाम न हो परंतु किसी वस्तुका मूल नाश कभी नहीं होता। कोई भी वस्तु अपनी वस्तुता को कभी नहीं छोड़ती । केवल उसकी अवस्था बदलती रहती है। जैसे जीवद्रव्य तो सदा रहता है, देवपर्याय, नरकपर्याय, तिर्यंचपर्याय मनुष्यपर्याय सभी पर्यायोंमें एक ही जीवद्रव्य घूमता फिरता है, उसकी पर्याय बदलती रहती है परंतु जीवद्रव्य एक ही रहता है । अंतमें मुक्त अवस्थामें भी वही जीवद्रव्य पहुँचकर सदाके लिये स्वरूपमें लीन हो जाता है। इसीप्रकार पुद्गलद्रव्यमें वस्तुताका नाश नहीं होता, पर्यायें नष्ट हो जाती हैं । जैसे एक वृक्षके परमाणु जलकर भस्म होनेपर भस्मस्वरूप हो जाते हैं, पश्चात् वे ही परमाणु फिर खातका स्वरूप धारणकर वृक्षरूप परिणत हो जाते हैं अथवा जलके परमाणु वृक्षमें पहुँचकर वृक्षरूप हो जाते हैं। जो दियासलाई पृथ्वीरूप कही जाती है वही घिसनेपर अग्निरूप परिणित हो जाती है । इसलिये वस्तुओंकी पर्याय तो नष्ट होती रहती है परंतु वस्तुका मूलनाश कभी नहीं होता है । जीवद्रव्य सदा जीवरूप ही रहता है, वह कभी जीवस्वरूपको नहीं छोड़ सकता। पुद्गल सदा पुद्गलरूप ही रहता है वह
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