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[पुरुषार्थसिद्धय पाय
रिक सुखोंसे सर्वथा भिन्न है। वह आत्माका ही स्वरूप है। आत्मा परमात्मपद में पहुँचकर उसी आत्मीय सुखमें निमग्न होता हुआ सदा वीतराग ज्ञानमय चैतन्य भावोंका आनंद प्राप्त करता रहता है। उस आनंदमें इच्छा नहीं है, सरागबुद्धि कहीं है किसीप्रकारका विकारभाव नहीं है, किंतु वीतरागभाव औदासीन्य एवं स्वस्वरूपावलोकन है।
_ जैन नीति अथवा अपेक्षाविवेचना । एकनाकर्षती श्लथयंती वस्तुतत्त्वमितरेण ।
अंतेन जयति जैनी नीतिमैथाननेत्रमिव गोपी॥२२५॥ अन्वयार्थ-( मंथानेत्रं ) दही मथनेकी नेती को ( गोपी इव ) ग्वालिनके समान [ जैनी नीतिः ] जिनेंद्रभगवानकी कही हुई नय विवक्षा [ वस्तु तत्वं ] वस्तुस्वरूपको [ एकेन आकर्षती] एक से खींचती हुई [ इतरेण श्लथयंती ] दूसरीसे शिथिल करती हुई [ अंतेन जयति ] अंतिमसे अर्थात् दोनोंकी सापेक्षतासे जयवती होती है।
विशेषार्थ-जिसप्रकार ग्वालिन दहीको बिलोती हुई एक रस्सीको अपनी ओर खींचती है दूसरी रस्सीको ढीली करती है, यद्यपि रस्सी एक होनेपर भी रई में लिपटी हुई रहनेके कारण दो भागोंमें बट जाती है, उसे गोपिका दोनों हाथोंमें पकड़कर दही बिलोती है।उस समय वह एक हाथ से एक ओरकी रस्सीको अपनी ओर खीचती है उसीसमय दूसरी हाथकी रस्सी को ढीली कर देती है अर्थात् उसे आगे बढ़ा देती है, इसप्रकार परस्पर एकको खीचनेसे दूसरीको ढीली करनेसे वह मक्खन (लोनी) निकाल लेती है । श्लोकमें आये हुये नेत्र शब्दका नोंती अर्थ है। नोंती उसी रस्सी को कहते हैं जिससे वह मक्खन निकालता है। ठीक गोपीकी नोंतीका दृष्टांत जैनेनिति अर्थात् जैनधर्मकथितनयवाद-अपेक्षाकथनपर लागू होता है। जैनधर्म प्रत्येक वस्तुका प्रतिपादन अपेक्षासे करता है । अपेक्षासे प्रति. पादन करनेका नाम ही नयवाद है । जैनसिद्धांतानुसार एक अपेक्षा दूसरी अपेक्षाकी सहयोगितासे ही ठीक वस्तु विचार कर सकती है अन्यथा नहीं
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