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________________ पुरुषार्थसिद्ध घ पाय ] [१२७ हैं [तस्मात्] इसलिये [तत्पुनः] वे फिर [अस्मिन्] इस बंध के विषय में [उदासीनं] उदासीन हैं । विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र जिस समय आत्मामें प्रकट हो जाते हैं, उस समय आत्माकी परिणति विशुद्ध हो जाती है। तथा अशुभ से निवृत्त होकर शुभमें प्रवृत्त होकर शुभमें प्रवृत्त हो जाती है और प्रवृत्ति मात्र बंधका कारण है ही । मन बचन काय जनित व्यापारका नाम ही प्रवृत्ति है । वही कर्मों के आस्रवका कारण है। प्रवृत्ति रूप व्यापारके हुए बिना कोंका आस्रव नहीं हो सकता, कारण जिससमय आत्मा मन वचन काय इनमेंसे किसी वर्गणाका अवलंबन लेकर हलन चलन रूप किया करता है, उसी समय कर्मोंका आस्रव होता है। इसलिए आस्त्रव का कारण योग है तथा आत्मामें उदयमें आये हुए जो रागद्वषरूप सकपाय परिणाम हैं वे ही आये हुये कर्मों के बंधक हैं इसीलिये कर्मों का बंध दसवें गुणस्थान तक ही होता है । आगे कषायभाव नहीं है इसीलिये कर्म ठहरते नहीं हैं । बंध करनेकी शक्ति कषायमें ही है परन्तु कर्मोंका आगमन तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान तक होता है। कारण कि वहाँ तक योगोंकी प्रवृत्ति रहती है परंतु चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थानमें वह भी नहीं है इसलिये वहाँ कर्मों का आना भी रुक जाता है, इससे भली भांति सिद्ध है कि कर्मों के बंधमें कारण योग और कषायभाव है। सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र कर्मबंधमें कारण नहीं हैं, फिर उनके रहने पर तीर्थंकर आहारक प्रकृतियोंका बध क्यों होता है इसका स्पष्टीकरण यही है कि जिससमय सम्यग्दर्शन,सम्यकचारित्र गुण आत्मामें प्रकट नहीं होते हैं उससमय भी योग कषाय कर्मबंध करते रहते हैं तथा उनके प्रगट हो जानेपरभी योग कषाय कर्मबंध करते रहते हैं। इतना विशेष है कि सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र गुमके प्रगट हो जानेसे आत्माकी अशुभ प्रवृत्ति दूर होजाती है, शुभ प्रवृत्ति होने लगती है अर्थात् आत्मा अधर्म को छोड़कर धर्म में प्रवृत्त हो जाता है। इसीलिये शुभ प्रवृत्ति होनेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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