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[ पुरुषार्थसिद्ध युपाय
फिर आत्माको संसारसे छुड़ानेका एवं मोह जाल त्यागने आदिका सब उपदेश व्यर्थ ही पड़ेगा इसलिये बंधके कारण योग और कषाय ही है रत्नत्रय नहीं।
रत्नत्रय तीर्थकरादि प्रकृतियों का भी बंधक नहीं है सम्यक्त्वचरित्राभ्यां तीर्थंकराहारकर्मणो बंधः । योप्युपदिष्टः समये न नयविदां सोपि दोषाय॥२१७॥
अन्वयार्थ-[सम्यक्त्वचरिताभ्यां] सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रसे [तीर्थकराहारकर्मणो बंधः] तीर्थकर और आहारक कर्मों का बंध होना है [यः अपि समये उपदिष्टः] जो यह भी शास्त्र में उपदेश किया गया है [सोपि] वह भी [नयविदा] नयों के जाननेवालोंको [नदोषाय] दोष धायक नहीं है।
विशेषार्थ-शास्त्रों में यह कथन भी तो पाया जाता है कि सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रसे तीर्थंकर तथा आहारक कर्मोंका बंध होता है फिर ऊपर का यह कथन कि रत्नत्रयसे कर्मबंध नहीं होता विरुद्ध पड़ता है। ऐसी अवस्थामें कौनसा कथन ठीक समझा जाय ? जिनकी ऐसी शंका है उनके लिए यह समझ लेना चाहिये कि जैनशास्त्रोंका जितना भी कथन है सब सापेक्ष है, जो अपेक्षा को समझते हैं उन्हें जैनशास्त्रोंमें कहीं विरोध प्रतीत नहीं होता है इसप्रकार अज्ञानतावश विरोध समझनेवालोंको शास्त्रोंका रहस्य समझनेकी चेष्टा करना चाहिये । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे तीर्थकर प्रकृति तथा आहारकप्रकृतिका बंध होता है इस शास्त्रकथनमें क्या अपेक्षा है; अर्थात् ऐसा कथन किस अपेक्षा से किया गया है ? इसका स्पष्टीकरण ग्रंथकार स्वयं नीचे करते हैं।
सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थकराहारबंधकौ भवतः । योगकषायौ तस्मात्तत्पुनरस्मिन्नुदासोनमः ॥२१८॥
अन्वयार्थ -[सम्यक्त्वचरित्रे सति] सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान के रहने पर [योगकषापौ] योग और कषाय [तीर्थकराहारबंधकौ भवतः] तीर्थंकर और आहारक प्रकृतियों के बंधक होते
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