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________________ ४१८ ] [ पुरुषार्थसिद्धच पाय आत्माका गुण कर्मबंध कराने में असमर्थ है। यदि आत्मीय गुणोंसे भी कर्मबंध होता हो तो सिद्ध कभी शुद्ध नहीं रह सकते हैं । इसलिये वह बंध भी रागरूप सकषायरूप परिणामोंसे ही होता है । इतना विशेष है कि राग दो प्रकार का होता है - एक शुभराग दूसरा अशुभराग । जिस आत्मा में रत्नत्रय प्रगट हो जाता है उसके अधिकतर शुभ राग रूप प्रवृत्ति रहती है रत्नत्रयधारी पुरुषका कर्मबंध मिथ्यादृष्टि पुरुषके कर्मबंधके समान संसार का कारण नहीं है किंतु परंपरा मोक्षप्राप्ति में सहायक होता है कारण अशुभ प्रवृत्तिके निवृत्त होनेपर रत्नत्रयधारी पुरुषकी जो शुभरूप प्रवृत्ति है वह शुद्ध परिणतिमें कारण हो जाती है, कालांतर में उसके विशुद्ध परिणति उत्पन्न हो जाती है । परंतु वास्तवमें तो जितने अंशमें कर्मबंध हैं उतने अंशमें जीवात्माका संसार है और जितने अंशमें रत्नत्रय है उतने अंशमें उसकी शुद्ध अवस्था है । इसी का नीचे स्पष्टीकरण करते हैं । रत्नत्रय और रागका फल येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ॥ २१२ ॥ येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ॥ २१३ ॥ येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति १२४ [ त्रिभिर्विषकं ] अन्वयार्थ – [ येन अंशेन सुदृष्टि: ] जिस अंश से आत्मा के सम्यग्दर्शन है। [ तेन अंशेन ] उस अंश से अर्थात उस सम्यग्दर्शन द्वारा [ अस्य बंधनं नास्ति ] इस आत्मा के कर्म बंध नहीं होता है । अर्थात सम्यग्दर्शन कर्मबंध का कारण नहीं है । [तु] और [ येन अंशेन रागः ] जिस अंश से रागभाव है, सकषायपरिणाम है [तेन अंशे] उस अंश से अर्थात् उस सकषायपरिणाम है। [ येन अंशेन ज्ञानं ] जिस अंशसे आत्मा के सम्यग्ज्ञान है [ तेन अंशेन अस्य बंधनं नास्ति ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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