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तक योगभाव है इसलिए वहांतक उस जनित कर्म आते हैं आगे अयोगकेवली-चतुर्दशगुणस्थान है; वहां आत्मामें कोई कर्म नहीं आता, इसप्रकार विपक्ष आत्मीय गुणोंके सद्भावमें कर्म रुकते हैं । यही संवरभाव आत्माको संसार समुद्रसे उद्धार कर मोक्षलक्ष्मीसे उसका संबंध कर देता है। निर्जरा भावनामें कर्मों का किसप्रकार निर्भरण होता है, किन किन उपायोंसे कर्म छिपाये जा सकते हैं, इन्हीं सब बातोंका चिंतबन करना आवश्यक है। यद्यपि सामान्यरीतिसे सभी संसारी जीवोंके कर्म अपना फल देकर समयानुसार खिरते रहते हैं वह विपाक निर्जरा कहलाती है परंतु ध्यानी मुनिगण कोंको असमयमें ही खिरा देते हैं, अपने तपोबलसे जिस कर्म की स्थिति १०० वर्ष है उसे १ वर्षमें ही खिरा देते हैं, उसी कालमें कर्म को उदयावलीमें ले आते हैं, उसका जी कुछ परिपाक है उसे उसी काल में भोग लेते हैं, ऐसी असामयिक निर्जराको अविपाक निर्जरा कहते हैं । इसी प्रकार अविपाक करते करते योगीगण बहुत कर्मोंका भार हलका कर डालते है पश्चात् कुछ ही कालमें समस्त कर्मों को निर्जीर्ण कर मोक्ष प्राप्त' करते हैं इसप्रकार इन बारह भावनाओंका चितवन करनेसे आत्मा परपदार्थसे हटकर अपने निजरूपमें रमण करने लगता है ।
परीषह जय हिममुष्णं नग्नत्वं याचनारतिरलाभः ।
राकादीनामाक्रोशो व्याधिदुःखमंगमलं ॥२६॥ स्पर्शश्च तृणादीनामज्ञानमदर्शनं तथा प्रज्ञा । सत्कारपुरस्कारः शय्या चर्या बधो निषद्या स्त्री ॥२०७॥ द्वाविंशतिरप्येते परिषोढव्याः परीषहाः सततं । संक्लेशमुक्तमनसा सक्लेशनिमित्तभीतेन ॥२८॥
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