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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
____बोधि नाम रत्नत्रयका है, इस बोधिभावनाका चितवन इस रूपमें करना चाहिये कि संसार में आत्मा अनेक पर्यायों में इधर उधर सदा घूमता रहता है । चतुर्गतियोंमें नाना कष्टोंका सहन करता रहता है, परंतु विना सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयके इसे आत्मीय-सच्चे सुखका लेश भी नहीं मिल पाता, इसलिए जिसप्रकार हो रत्नत्रयको प्राप्तिके लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए । यदि एकबार भी इस जीवात्माको बोधिलाभ हो जाता है तो नियमसे उसकी मोक्ष होती है । बोधिलाभ संज्ञी, विशुद्ध, भव्य अंतःकोटाकोटी सागरोपमकर्मस्थितिके जीव के ही होता है ऐसे जीवके भी बहुत दुर्लभ है अच्छे निमिन और सुसमागम मिलनेपर तथा काललब्धि मिलनेपर ही होता है। बोधिलाभ ही जीवकी निधि है, उसका प्राप्त करना प्रत्येक ज्ञानीका प्रथम कर्तव्य है । संवर भावनामें कर्मों के रोकनेका विचार करना चाहिये, जिन कारणों से कर्म आते हैं उनके प्रतिपक्षी गुणोंके प्रगट होनेसे कर्म रुक जाते हैं, मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इनसे कोका आगमन होता है इनके विपरीत गुण-सम्यग्दर्शन, विरति, अप्रमत्तभाव, अकषायभाव और अयोगभाव इनसे कर्म रुक जाते हैं। चतुर्थगुणस्थानमें सम्यग्दर्शनगुण प्रगट हो जाता है इसलिए वहांपर मिथ्यात्वजनित कर्म आत्मामें नहीं आ सकते, दूसरे तीसरे में भी नहीं आते, कारण मिथ्यात्वकर्मका उदय पहले गुणस्थान में रहता है इसलिए वहींपर मिथ्यात्वकर्मजनित कर्मबंध होता है पांचवें गुणस्थानमें एकदेश विरतभाव है, छठे गुणस्थानमें पूर्ण विरतभाव है इसलिए उनसे नीचे ही अविरतजनित कर्मोंका बंध होता है । छठे गुणस्थानतक ही प्रमादजनित कर्म आते हैं, सातवें गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्त. भाव है वहां पर प्रमादजनित कर्मबंध नहीं होता । दशवें गुणस्थान तक कपायभाव रहता है, वहांतक कषायजनित कर्मबंध होता है उससे ऊपर अकषायभाव है इसलिए वहांपर कर्मजनितबंध नहीं होता, तेरहवें गुणस्थान
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