SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८ ] [ पुरुषार्थसिद्ध पाय यति प्रातःकाल देवबन्दना के पश्चात् बन्दना करने योग्य हैं, मध्यान्हमें भी सामायिकादि विधिके पश्चात् अंदनीय हैं। सायंकाल भी प्रतिक्रमादि विधिके पश्चात् वंदनीय हैं । तथा जिस समय कहीं से आचार्य आते हों, कहीं जाते हों, तब भी उन्हें बंदना करना चाहिये इसप्रकार णमो अरिहंताणं इस वाक्यसे सामायिक दंडक करना चाहिये । थोसामि इस वाक्यसे चतुर्विंशतिस्तत्र - स्तव दंडक करना चाहिये । जयति भगवान् इस वाक्यसे अर्हत्सिद्धाचार्यादि बंदना करना चाहिये । अब प्रतिक्रमणका स्वरूप कहा जाता है - अपने किए हुए पापोंकी आलोचना करना, निंदा करना अर्थात् उन पापोंको आलोचनादि पश्वात्ताप द्वारा नष्ट करना प्रतिक्रमण कहलाता है । जो पाप मनसे वचनसे कायसे स्वयं होता है, दूसरे से कराया जाता है, किए गए पापों की सराहना की जाती है इन समस्त पापकी निवृत्ति के लिये प्रतिक्रमणविधि करनेवाला निंदा करता है, मुझसे कौन कौन अपराध किस किस प्रकार बन पड़े हैं वे अपराध मेरे अब नष्ट हो जांय, मैं उन अपराधों को कर तो चुका हूं' परंतु अब मेरा आत्मा उनसे बहुत ही भयभीत हो रहा है, हे भगवन् ! मेरे समस्त दोष नष्ट हो जांय । इसप्रकार भावोंको सरल एवं विशुद्ध बनाकर जो दोषोंका उल्लेख कर उन्हें दूर करने के लिये आलोचना एवं दोषनिंदा पश्चाताप आदि किया जाता है उससे कमोंकी निर्जरा एवं दोषोंकी निवृत्ति होती है । कारण आत्मा को विशुद्ध बनानेसे ही पापोंकी निवृत्ति होती है, प्रतिक्रमणमें पापों से भीति होती है बिना आत्माशुद्धिके पापभीति एवं उनकी निंदा नहीं की जाती इसलिए उससे आत्मशुद्धिसे पापनिवृत्ति होती है । प्रतिक्रमण सात समयों में किया जाता है, एक तो दिनभर का प्रतिक्रमण अर्थात् दिनभरके पापोंकी आलोचना की जाती है। एक रात्रिका प्रतिक्रमण - रात्रिभर के पापोंकी आलोचना की जाती है। इसी प्रकार पाक्षिक पंद्रह दिनका, चातुर्मासिक-चार महीनेका, सांवत्सरिक-एक वर्षका अर्थात् एक दिन, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org. Jain Education International
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy