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[ पुरुशार्थसिद्धय पाय
शक्ति ही नहीं है कि सर्वधर्मों को एक साथ प्रतिपादन कर सके । इसका भी कारण यह है कि जितने भी शब्द बनते हैं वे सब धातुओंसे बनते हैं; धातुएँ क्रियात्मक होती हैं, क्रिया एक समयमें एक ही धर्मका द्योतन करती है। इसलिये शब्दोंद्वारा जो कुछ वस्तुस्वरूप कहा जायगा, वह भेदात्मक ही पड़ेगा। वस्तुस्वरूप अभिन्नरूप है, अतः निश्चयनय ‘जीव का ज्ञानगुण हैं' इस कथनको भी मिथ्या समझता है । शब्दों द्वारा प्रतिपादित भेदात्मक धर्मों का निषेध करते हुए भी अनन्तगुणोंका अभिन्नरूप अखंडपिंडरूप अवक्रव्य जीव द्रव्य ही निश्चय नयका विषय पड़ता है । उपर्युक्त कथनका सार इतना ही है कि निश्चयनयका विषय अवकव्यस्वरूप भावद्रव्य है। बाकी समरत भेदरूप कथन व्यवहारनयका विषय है। जीवके ज्ञान कहना, यह भी व्यवहारनय का ही विषय है। क्योंकि अन्य गुणमें भेद प्रगट किया है । यहां पर यह शंका की जा सकती है कि जब द्रव्यगुणका कथन भी मिथ्या है जो कि वास्तविक है, तो परनिमित्तसे जितना भी कथन होगा वह तो अवश्य ही मिथ्या होगा । जैसे किसी पुरुषको क्रोधी कहना । क्रोध ज्ञानकी तरह आत्माका निजस्वरूप तो नहीं है, किंतु पुद्गलद्रव्य के निमित्तसे होनेवाला आत्माका वैभाविक परिणाम है। यह सब कथन निश्चय नय से मिथ्या ठहरता है, तो क्या व्यवहारनय का विषय सव मिथ्या ही है ? यदि ऐसा है तो व्यवहारनय भी मिथ्या ठहरा ? इस शंकाका उत्तर यह है कि___जो व्यवहारनयका विषय है, वह निश्चयनयसे मिथ्या इसलिये है कि वह नय शुद्धवस्तुस्वरूपको ही विषय करता है। परन्तु व्यवहारनय भी मिया नहीं है, परनिमिचसे होनेवाले धर्मो को विषय करना ही उसका लक्षण है; तो जो अपने लक्षण से लक्षित है, वह मिथ्या नहीं कहा जा सकता। परंतु फिर भी शंका यही उपस्थित हो सकती है कि उसका विषय तो मिथ्या ही है ? इसका उत्तर यह है कि उसे भी मिथ्या नहीं कहा जा सकता; कारण वह निश्चयका
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