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[ पुरुषार्थं सिद्ध पाय
सामायिक पाठ बोलते बोलते कुछका कुछ कह जाना, जल्दी जल्दी बोलना एवं अशुद्ध बोलना यह सब वचनका दुरुपयोग है । ऐसा करने से सामायिकका पूर्ण फल नहीं हो पाता, प्रत्युतः अशुद्धपाठसे कभी कभी उलटाफल भी हो जाता है । जल्दी करने से चंचलता एवं व्यग्रता होती है । व्यग्रतासे ध्येयका विचार निश्चलतासे नहीं हो पाता ।
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जो कार्य जिसप्रकारका होता है, वह उसीप्रकार सिद्ध किया जाता है । जैसे कोई लड़ाई लड़ना चाहता है वह वीरोचित आसन से ही खड़ा होगा या बैठेगा, लेटकर या ऐसे ही असावधानी से बैठकर लड़ाई में प्रयुक्त होकर विजय पाना अशक्य है । जो सोना चाहता है वह विना विस्तरपर हाथ पैर पसार कर लेटे सुखपूर्वक निद्रा नहीं ले सकता । इसीप्रकार जो सामायिक करना चाहता है वह पद्मासन, खड्गासन आदि नियत एवं निश्चल आसनोंसे रहकर ही उसे सिद्ध कर सकता है । बिना आसनोंक मड़ अथवा विना उन्हें निश्चल बनाए सामायिक में एकाग्रता नहीं रह सकती । इसके लिये शरीरको हरप्रकारसे रोकना चाहिये। जिस आसन से सामायिक में बैठे उसी आसनसे दृढ़ रहना चाहिये, बीच बीचमें आसन बदलना, हाथ एवं मुख आदि का विचलित कर देना, शरीरको हिला देना, यह सब कायका दुरुपयोग है। इन दुरुपयोगोंसे सामायिक में स्थिरता नहीं रह सकती एवं वीतरागताके स्थान में अशुभास्रव हो जाता है. लिये इन तीनों योगोंको पूर्ण रीति से वश में रखना चाहिये ।
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अनादर करने से भी हानि होती है. सामायिक में उपेक्षा- उदासीनता आ जाती है, उससे निश्चल ध्यान नहीं होता, इसलिए अनादर भी सामायिकका अतीचार है ।
तथा सामायिकको भूल जाना, यह भी सामायिकका अतीचार है । शंका हो सकती है कि 'यह भूलना मनसे ही हो सकता है वह मनके
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