________________
पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
[ ३३१
सांसारिक वासनाओंसे नहीं मुक्त कर सके तो फिर दुर्गतिका दुःख भोगना होगा कदाचित् आयुका बंध मरणकाल के पहले ही हो तो भी यह लाभ होगा कि आयुका बंध किया जा चुका है उसमें भी उत्तम स्थान मिलेगा । जैसे देवायुका बंध यदि हो चुका हो तो मरणकालमें परिणामों के उज्ज्वल रहनेसे कल्पवासी देवोंमें उत्पत्ति होगी, भवनवासी आदिमें नहीं होगी, मनुष्योंसे उत्तम कुलादि मिलेंगे, इत्यादि रूपसे सल्लेखना हरप्रकारसे जीवको सुख साता पहुंचानेवाली है । उसके विषयमें मनुष्यको सदैव यही चितवन करना चाहिये कि मरणकालमें मेरा सल्लेखनापूर्वक ही मरण हो, क्योंकि मेरी निज निधि अथवा मेरे वास्तविक हितैषी धर्म मित्रको सल्लेखना ही मेरे पास भेज सकती है, बिना उसके धर्मकी रक्षा में कदापि नहीं कर सकता, और बिना उसकी रक्षा किये धर्मशून्य होकर ही परभवमें मुझे जाना पड़ेगा, इस परमहितकारिणी सल्लेखनाको मरणकालमें मुझे अवश्य धारण करना चाहिये । यदि किसी कारणवश बीचमें ही आयुके घात होनेका अवसर आ जाय तो समय सल्लेखनाका मुझे निमित्त मिल जाना चाहिये, इसप्रकार सल्लेखनाकी भावना सदा बना रहने से फिर मरणकालमें आत्मा ममत्व छोड़ने के लिए समर्थ हो जाता है। भावनासे आत्मा व्रताचरणके लिये दृढ़ बन जाता है । परन्तु इतना विशेष है कि सल्लेखनासे किसी सांसारिक स्वार्थका लक्ष्य नहीं रखना चाहिये, क्योंकि वह स्वार्थ निदानबंध होगा, निदानबंधका फल बहुत छोटा एवं आत्माको ठगनेवाला है इसलिये बिना किसी सांसारिक चाहनाके धर्म भक्तिपूर्वक शुद्ध परिणामोंसे उसका धारण करना ही उत्तम फलका देनेवाला है।
सल्लेखनाका पालन मरणांतेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि। इतिभावनापरिणतोऽनागतमपि पालयेदिदं शीलं ॥१७६।।..
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org