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पुरुषार्थसिद्धय पाय
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धर्मपात्रों को उनके गुणोंकी वृद्धिके लिए दान देकर संतुष्ट करना चाहिये । इसके सिवा जो परस्पर गृहस्थ सधर्मा भाई आपसमें एक दूसरोंको भोजन कराते हैं वह समानदान कहलाता है उसे समदत्तिके नामसे कहा जाता है, दाता गृहीता दोनों ही की वहाँ समानकोटि है । ऐसा समानदान भी प्रेमका एवं वात्सल्य भावका वर्धक है । समय समयपर गृहस्थोंको यह दान भी करते रहना चाहिये ।
अब कुपात्रका स्वरूप कहा जाता है, जिनकी आत्मामें सम्यग्दर्शन तो न हो परन्तु जो चारित्रका पालन करते हों वे कुपात्र कहलाते हैं. इस संज्ञामें द्रव्यलिंगी मुनि एवं मिथ्यादृष्टि व्रत पालनेवाले श्रावक ग्रहण किये जाते हैं । कुपात्रोंकी पहचान होना तो कठिन है, परन्तु उनको दिया हुआ दान कुभोगभूमि आदि फलोंको देता है, यद्यपि दान देनेका फल तो सदैव अच्छा है, भोगभूमि आदि भोग भोगनेके स्थान मिलते हैं, परंतु कुपात्रदानसे कुभोगभूमि आदि स्थान मिलते हैं, जो श्रावक व्रतोंको तो पालते हैं परंतु देवगुरुशास्त्रमें अटलश्रद्धा नहीं रखते, वे सब कुपात्र कहे जाते हैं।
अपात्र वह कहलाते हैं जो सम्यग्दर्शन और चारित्र दोनोंसे रहित हों। अर्थात् जैनोंसे भिन्न जितने भी हैं वे सब अपात्र हैं, कारण न तो उनकी आत्मामें सम्यग्दर्शन है और न जैन धर्मानुसार चारित्र है । इन अपात्र पुरुषोंको धर्मबुद्धिसे दिया हुआ दान व्यर्थ ही नहीं जाता किंतु कुफलअशुभफलको भी देता है। ___ यहांपर यह शंका हो सकती है कि जब जैनधर्मीके सिवा सभी अपात्र हैं तो उन्हें दान देना पाप बंधका कारण है वैसी अवस्था में अंधे, लूले लंगड़े, अनाथ, दुःखी, क्षुधातुर इन लोगोंको भी दानदेनेका निषेध सिद्ध होता है, परंतु शास्त्रकारोंने ऐसोंको दान देनेका उपदेश दिया है ? इस
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