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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
ही प्रगट हो चुका हो वही आत्मा पात्र कहा जाता है । पात्र के तीन भेद हैं - उत्तमपात्र, मध्यम पात्र, जघन्यपात्र | जिनकी आत्मामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र तीनों ही गुण प्रगट हो चुके हों ऐसे सकलसंयमी आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधु उत्तमपात्र कहे जाते हैं, जिनकी आत्मामें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और एकदेशचारित्र हो ऐसे पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक मध्यमपात्र कहे जाते हैं । जिनकी आत्मामें देशचारित्र भी न हो किन्तु सम्यग्दर्शन गुण प्रगट हो चुका हो ऐसे अविरत सम्यदृष्टि - चतुर्थ गुणस्थानवर्ती पाक्षिक श्रावक जघन्यपात्र हैं ।
जिसप्रकार उत्तम मध्यम जघन्य गुणवाली पृथ्वी में बोया हुआ बीज उसी रीतिसे उत्तम मध्यम जघन्य फल देता है उसीप्रकार उत्तम मध्यम जघन्य पात्रों में दिया हुआ दान क्रमसे उत्तम मध्यम जघन्य फलको देता है ।
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यदि उत्तमपात्र मिलते हों तब तो अहोभाग्य ही समझना चाहिये यदि वे अपने दुर्दैवसे नहीं मिल सकें तो उत्कृष्ट मध्यमपात्र ऐलक क्षुल्लक परिग्रहत्यागी ब्रह्मचारी चतुर्थ प्रतिमाधारी दूसरी प्रतिमाधारी एवं पहली प्रतिमाधारी जो भी मिलसकें उन्हें आहार कराकर ही श्रावकको आहार करना चाहिये । बिना आहारदान दिये आहार करना श्रावककी पद्धतिसे बाहर है । गृहस्थाश्रम में किये गये सांसारिक आरंभजनित पापों का क्षत्र करने के लिये श्रावकके पास पात्रदान देना ही सुगम उपाय है । यदि वह भी उपाय श्रावक काममें न लावे तो वह हीनकर्मा है । यदि मध्यम व्रती भी श्रावक आहार करने के लिये नहीं मिलसकें तो जघन्यपात्र - अविरत सम्यदृष्टिको ही ले जाकर उसे भक्तिपूर्वक आहार कराना चाहिये । ऐसे जघन्य पात्रोंकी सर्वत्र सत्ता देखनेमें आती है, जो देवगुरुशास्त्र में दृढ़श्रद्धा रखते हैं, जिन मार्ग से विपरीत एक अक्षरभी जो बोलने के लिये तैयार नहीं है जो अष्ट
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मूल गुणके धारी हैं ऐसे पुरुष अविरत सम्यग्दृष्टियोंकी कोटिमें शामिल करनेयोग्य हैं, इसके सिवा जिनकी आत्मामें संसारसे भय पैदा हो चुका हो,
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