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[ पुरुषार्थं सिद्ध पाय
होते हैं वही दाता प्रशंसनीय एवं विशेष पुण्यका भाजन होता है । दान विधिपूर्वक ही देना चाहिये, विधि किसप्रकार है यह आगेके श्लोक में स्वयं ग्रन्थकार कहेंगे । दान पात्रको ही देना चाहिये, अपात्र या कुपात्र को दिया हुआ दान उलटा विपरीत फल - पापफल देता है । दान योग्य शुद्ध उत्तम द्रव्यका देना चाहिये । जो साधारणरूपसे साधारण द्रव्योंका दान दिया जाता है उसमें दान देनेवालेकी उपेक्षा पायी जाती है, जहां विशेष रुचि एवं विशेष भक्ति होती है वहां विशेष पदार्थों की योजना अवश्य की जाती है । दान देते समय किस प्रकारकी भावना रखनी चाहिये, इसके लिये ग्रन्थकार कहते हैं कि दान देते समय दाताओंको केवल अपने ओर गृहीताके कल्याणकी भावना रखनी चाहिये । दान देने से मुझे परम पुण्यबंध होगा, दान देनेका अवसर बड़े ही भाग्यसे मिलता है, इसप्रकार अपने कल्याणकी भावना दाताको रखनी चाहिये और गृहीताका इस द्रव्यसे उपकार हो ऐसी बुद्धि भी उसे रखनी चाहिये । इस स्व-पर अनुग्रहके सिवा उसे और किसी सांसारिक वासनाकी चाहना नहीं रखना चाहिये । जो दाता अपने दानका फल स्वर्गादिगति चाहता है, जो संसारमें प्रतिष्ठा लेना चाहता है, जो गृहीतासे कुछ प्रत्युपकार- बदला लेने की वांछा रखता है. जो गृहीता या उसके किसी पूर्व सम्बन्धीको प्रसन्न रखनेकी इच्छा करता है, वह दाता उत्तम दाता कहलानेयोग्य नहीं है और न ऐसा दाता दान के विशेष फलको विशेष पुण्यको पाता है । इसलिये दान देनेवालेको किसी प्रकारकी स्वार्थवासना नहीं रखकर केवल अपने और परके कल्याणकी ही भावना रखना चाहिये । जिनके कोई तिथि नियत नहीं है वे अतिथि कहे जाते हैं, अर्थात् बिना किसी तिथिके निश्चय किये जब कभी शरीररक्षणार्थ भोजन के लिए श्रावकके घरपर आ जायें वे अतिथि कहलाते हैं ऐसे अतिथि सर्वोत्तमकोटि में नग्न दिगम्बर मुनि महाराज कहलाते है, दूसरी कोटिमें अर्जिका, तीसरी कोटि में ऐलक, चौथीमें क्षुल्लक
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