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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
भीतर दूसरी सीमा करनी चाहिये । जैसे कोई पदार्थ = दिनके लिये हालमें सेवनके लिये रक्खा है तो फिर भी उससे तृष्णा घटानेके लिये अपनी शक्ति देखकर यह नियम करे कि मैं उसे दो दिन ही ग्रहण करूंगा इत्यादिरूपसे प्रतिदिन सीमा के भीतर सीमा करते रहना चाहिये, वैसा करने से भोगोपभोगपरिमाणव्रत उत्तमरीति से फलप्रद होता है ।
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भोगोपभोगपरिमाणव्रतका फल
इति यः परिमितभोगैः संतुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान् । बहुतर हिंसाविरहात्तस्याऽहिंसा विशिष्टा स्यात् ॥ १६६ ॥
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अन्वयार्थ - (इति) इसप्रकार ( : ) जो पुरुष ( परिमितभोगैः संतुष्टः ) नियमित किये गये भोगों से संतुष्ट होता हुआ ( बहुतरान् भोगान् ) अधिक भोगोंको (त्यजित ) छोड़ देता है ( तस्य ) उस पुरुषके ( बहुतर हिंसाविरहात् ) बहुत अधिक हिंसा के छूट जानेसे ( विशिष्टा अहिंसा ) विशेष अहिंसा (स्यात्) होती हैं
विशेषार्थ – जो पुरुष थोड़े भोगोंसे ही संतुष्ट होता हुआ बहुभाग भोग तथा उपभोगको छोड़ देता है वह उनसे होनेवाली समस्त हिंसासे बच जाता है, इस रीति से उसके समधिक अहिंसात्रत होता है । कारण कि जितना आरंभ घटाया जाता है उतनी ही हिंसासे मुक्ति होती जाती है ।
अतिथिसंविभागव्रत
विधिना दातृगुणवता द्रव्यविशेषस्य जातरूपाय | स्वपरानुग्रहहेतोः कर्तव्यो ऽवश्यमतिथये भागः || १६७ ||
अन्वयार्थ – [ दातृगुणवता ] दाता के गुग धारण करनेवाले पुरुषको [ विधिना ] विधिपूर्व [ जातरूपाय अतिथये ] जन्मकाल के रूपको - नग्न अवस्थाको धारण करनेवाले अतिथिसाधु के लिए [ स्वपरानुग्रहहेतो: ] अपने और परके उपकारके निमित्त [ द्रव्यविशेषस्य ] विशेष शुद्ध एवं विशेष योग्य द्रव्योंका [ भागः ] विभाग - हिस्सा [ अवश्यं कर्तव्यः ] अवश्य करना चाहिये ।
विशेपार्थ - दान देनेवाले दाताके सात गुण शास्त्रकारोंने बतलाए हैं जिन्हें कि स्वयं आचार्य आगे बतलायेंगे वे सातों गुण जिस दातामें
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