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[ पुरुषार्थसिद्ध यु पाय
अहिंसाव्रतका नहीं पलना हिंसामें प्रवृति रखना है उससे आत्माको पापों का घर बनाना है, उसका परिणाम दुर्गतिको प्राप्त होना है इसलिए सुगति एवं आत्मीय पवित्रता चाहनेवालोंको अनर्थदण्डत्यागी बनना परमावश्यक है।
इसप्रकार ऊपर तीन गुणवतोंका निरूपण किया गया, अब चार शिक्षाव्रतोंका निरूपण किया जाता है ।
सामायिकका स्वरुप रागट्ठ पत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य ।
तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिकं कायं ॥१४८॥ अन्वयार्थ - ( निखिलद्रव्येषु ) समस्त सोना चांदी और तृणादिक तथा शत्रु मित्र महल श्मशान आदि द्रव्योंमें ( रागद्वपत्यागात् ) रागदपका त्याग कर देनेसे ( साम्यं अवलंब्य ) समताभाव धारण करके ( तत्त्वोपलब्धिमूलं) तत्त्वप्राप्तिका मूलकारणभूत ( सामायिक बहुशः कार्य ) सामायिक अधिकरूपमें करना चाहिये ।
विशेषार्थ-सम् उपसर्ग पूर्वक गति ( जाना ) अर्थवाली इण धातुसे समय बनता है, सम्का अर्थ एकीभाव है, अयका अर्थ गमन है, जो एकीभावरूपसे गमन किया जाय उसे समय कहते हैं, उसका जो भाव है उसे सामायिक कहते हैं । अर्थात् जो आत्माको समस्त मनवचनकायकी इतर वृतियोंसे रोककर निश्चित एक ध्येयकी ओर लगा दिया जाता है वही सामायिक कहलाता है । सामायिक करनेवाला पुरुष हरप्रकारसे मन को वशमें कर लेता है, वचनको वशमें कर लेता है, कायको वशमें कर लेता है और कषायोंको सर्वथा दूर कर देता है, उसके रागद्वषरूप परिणामोंका अभाव होकर शांति एवं समताभावकी जागृति हो जाती है इसीलिये सामायिकमें बैठा हुआ ध्यानी आत्मा शत्रु मित्रको समानदृष्टि से समझता है । न तो शत्रपर क्रोध करता है और न मित्रपर प्रेम करता है। महल और मसान तथा तृण और कांचन इन सबोंके विषय में भी
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